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भक्ति सुधा -करपात्री महाराज
श्री रासपञ्चाध्यायी
दासी के समान पीछे-पीछे घूम रही ऐश्वर्य शक्ति की सहायता से वे झटपट चतुर्भुजधारी नारायण बन गये। अन्वेषण क्रम प्राप्त उन नारायण का गोपांगनाओं ने दर्शन किया, पर वह आकर्षण, वह औत्कण्ठ्य, वह आनन्द उन्हें नहीं प्राप्त हुआ, जो श्रीकृष्ण संमिलन में प्राप्त होता। परन्तु फिर भी उन्होंने नम्रता से प्रणाम किया। उन्हें वरदानोन्मुख देखकर वर माँगा- ‘श्रीश्यामसुन्दर हमें शीघ्र मिल जायँ।’ क्या श्रीनारायण में भूषण-वसन-सौन्दर्य की कमी थी? पर उनके मन में - हृदय में विरजमान् अद्भुत छवि श्रीश्यामसुन्दर की मूर्ति के आगे वे सब कुछ नहीं जचा। इस दृष्टान्त से इनकी अटलता, अनन्यता तथा प्रणयातिशय व्यक्त होता है। अत: अरुन्धती आदि सतियाँ इनकी पादपांसु चाहती है। इनके अतिरिक्त कौन ऐसी युवति होगी जो साक्षान्नारयण के दर्शन करके उन पर मुग्ध न हो। यह तो गोपांगनाओं की ही विशेषता थी कि जो श्री मन्नारायण के भी साक्षात दर्शन करके उनसे भी श्रीश्यामसुन्दर सम्मिलन की ही प्रार्थन की, यहाँ यह दिखाया गया कि जैसे महासम्राट के समक्ष इतरों का ऐश्वर्य अभिव्यक्त नहीं होता, जैसे सूर्य के सामने चन्द्र नक्षत्रादि फीके पड़ जाते हैं, दीखते ही नहीं, वैसे ही महामहामाधुर्य के सामने समस्त ऐश्वर्य अस्त हो जाते हें, प्रकट ही नहीं होते। प्रेम की स्थिति प्राणि मात्र में अणु-परिमाण में, पार्षदादि में मध्यम परिमाण में और महत्परिमाण में गोपांगनाओं में थी। इसके अतिरिक्त श्रीराधिका जी में वही प्रेम परममहत्परिमाण परिमित था। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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