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भक्ति सुधा -करपात्री महाराज
श्री रासपञ्चाध्यायी
गोपालों के कीचभरे घरों के चौक में - आँगन में आप खूब मचल-मचलकर घूमते हो, पर ब्राह्मणों के पवित्र यज्ञ स्थलों में जाते हुए लजाते हो। गौ, वत्स, वृषभ, महोक्ष, जो पशु हैं, उनके हुंकार पर आप चट बोल उठते हो, पर सत्पुरुषों की सैकड़ों वैदिक स्तुतियों का कोई उत्तर नहीं देते, जैसे सुनी ही नहीं। गोकुल गाँव की पुंश्चली जो जार वृद्धि से आपका सेवन करती रही, उसका दास बनने में आपको तनिक-सा भी संकोच न हुआ, पर जो बेचारे व्रत, तप आदि प्रयत्नपूर्वक बाह्यकरण और अन्तःकरण को विषयों से सम्पृक्त नहीं होने देते, मन को दबाते हैं, वृत्तियों को रोकते हैं, शम, दम, उपरति, तितीक्षा आदि साधनों में अपने जीवन को मिटा देते हैं, आश्चर्य है कि आप उनके मालिक भी नहीं बनना चाहते, स्वामी बनने से भी घृणा करते हो। आपके इन चरित्रों को देखकर यही निश्चय करना पड़ता है कि आपकी पद प्राप्ति केवल प्रेमसाध्य है, एकमात्र रागानुगा भक्ति ही सर्वतोभावेन आपको वश में कर सकती है। वहाँ रुचि किस चीज की थी यह बात दूसरी है। गाय ने हुंकार किया, बछड़े ने बुलाया, हम्मारव करते ही चट बोल पड़े। उधर गोपांगनाओं के पुंश्चली भाव पर भी रीझ गये। यहाँ सब बात उलटी। जितनी ऊँची चीज सब नीची कर दी गयी। महाराजाधिराज का वह स्वरूप इतने महत्त्व का नहीं हुआ जितना पार्थ-सारथि का। सखा अर्जुन के घोड़ों के सईस बने। महाभारत युद्ध में अर्जुन के घोड़े जल के बिना क्लान्त हो गये, उनके लिये उन्होंने पाताल गंगा निकाली। पार्थ-सारथि ने रथ से घोड़ों को खोलकर जल पिलाया, स्नान कराया, घोड़ों की लगाम अपने मुख में पकड़ी, तोत्र (चाबुक) को मुकुट में खोंसा और चार हाथों से उनको धोया-पोंछा। उस समय की उनकी झाँकी देखते ही बनती थी। राजा-महाराजा भी जिसको नहीं कर सकते उसे प्रेम के बन्धन में बँधकर उनके अधिराजराज ने किया। परन्तु यह भी गोपांगणकर्दम क्रीड़ा के आगे तो फीका पड़ जाता है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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