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भक्ति सुधा -करपात्री महाराज
श्री रासपञ्चाध्यायी
इससे स्पष्ट है कि यह श्रीकृष्ण रस सर्वरसोपमर्दी है। सब रस सड़ जाते हैं- नीरस हो जाते हैं, परन्तु यह सदा नवनवायमान, उत्तरोत्तर वृद्ध्यभिमुख रहता है तभी तो श्रीव्रजदेवियों के लिये, अथवा वैसे भावुक जन के लिये, जब वे श्रीश्याम रस का आस्वादन करने लगते हैं उनके लिये समस्त विषय रस नीरस हो जाते हैं। यही श्रीकृष्ण रसोपासकों की कसौटी है। सूर्य के सामने चन्द्रादि फीके पड़ जाते हैं। अत: उनका ऊपर का जीवन सर्वदा रूखा, बनावटी मण्डन से दूर होता है। वे उन रूखे-सूखे टुकड़ों से भी उदर ज्वाला शान्त कर देते हैं जिन्हें शायद कुत्ते भी न खायें। ये फटे चिथड़ों, मृत्पात्रों से ही जीवन-निर्वाह कर लेते हैं। क्योंकि सर्वरसोपमर्दी श्रीराधा-कृष्ण के दिव्य दर्शन, रसपान से वे सर्वदा छके रहते हैं। ब्रह्मास्वाद-परायण योगीन्द्र-मुनीन्द्र की भी यही स्थिति होती है। वे लटे तन, फटे कपड़े रखते हुए भी परमैश्वर्य सम्पन्न सम्राट दुर्लभ प्रसन्नता में मग्न रहते हैं। श्रीराधाकृष्ण तत्त्व की ब्रह्मता में यह भी एक प्रमाण है। जिसके कारण उनको वह ऊँची प्रसन्नता है वह तत्त्व श्रीराधा-कृष्ण ही है। ऐसे पुरुषों को बाहर के दुःखों की, सुखों की कुछ परवाह ही नहीं होती। ये लता उसी स्थिति में हैं, लौकिक पति वनस्पतियों के अंक में रहकर भी उनको कोई अलौकिक सौख्य या उसके अभाव में दुःख नहीं है, वे तो श्रीश्यामसुन्दर के कर स्पर्शानन्द-समुद्र में मग्न हैं। अतः उन्हीं से पूछती हैं- ‘पृच्छतेमा लता...।’ श्रीयुगलबिहारी की प्रेष्ठसखी रूपा व्रजांगनाओं को तो उन लताओं का दर्शन करके ही आश्वासन और एक प्रसन्नता मिली। कारण, वे जानती हैं कि वे लता विशुद्ध सख्य भाववती हैं। यही समझकर उन्होंने उनसे प्रश्न भी किया। इन व्रजांगनाओं के मन में लताओं की उस स्थिति से यह भाव उत्पन्न हुआ कि “सुपर्णयूथिका लताएँ श्रीयुगलबिहारी की लीला से प्रेरित होकर उस भाव को हमें इंगित करने के लिये ही मानो तरुण तमाल के साथ समालिंगित हुई है। अत: ‘तत्करजस्पृष्टा’ (तयोः करजैः स्पृष्टा) हैं। दोनों ने एक-दूसरे का श्रृंगार करने के लिये अर्थात् श्रीवृषभानुकुमारी ने प्यारे श्रीश्यामसुन्दर के अपने जैसे स्त्रीवेश की रचना के लिये और श्रीनन्दसूनु ने श्रीगौरीसुन्दरी के अपने जैसे पुरुष वेश की रचना के लिये लताओं से सुमन-स्तवक और सुमनों का चयन किया है। उन्हीं के संस्पर्श से इनमें यह पुलक भाव है।” |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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