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भक्ति सुधा -करपात्री महाराज
श्री रासपञ्चाध्यायी
ये सुवर्ण-यूथिका लताएँ अपने मुकुलित पुष्प विकास से श्रीराधा-कृष्ण के मधुर मिलन का अनुभव और हमें संकेत कर रही हैं। इसी से ये ‘नूनं तत्करजस्पृष्टा’ हैं और तभी इनमें मधुधारा आदि दीख पड़ रही हैं। केवल श्रीव्रजाधिप ने ही नहीं, अपितु श्रीव्रजेश्वरी ने भी, दोनों ही ने अपने वेश-विशेष की रचना के लिये इनसे पुष्प लिये हैं। तभी तो अपने पति तरुओं से श्लिष्ट होकर भी ये विशेष पुलकित हैं। यह प्राकृत पति के मिलन की पुलकावली नहीं। यह मधुधारा, अश्रुधारा आदि तो उस परब्रह्म पूर्णतम-पुरुषोत्तम श्रीकृष्णचन्द्र आनन्दकन्द से संस्पर्श से ही सम्भव है। उसी सम्मिलन का यह सुवर्ण-यूथिका लता हमें संकेत कर रही हैं, आओ सखियो, उन्हीं से पूछें। श्रीव्रजदेवियाँ प्राणप्यारे श्यामसुन्दर को ढूंढ़तीं, विभिन्न तरुओं से पूछतीं अन्त में कहती हैं- ‘इन लताओं से पूछो, ये अपने पति वनस्पतियों का आलिंगन किये रहने पर भी पुलकित हो रही हैं। इनमें यह उत्पुलकितता प्रिय श्रीश्यामसुन्दर के दर्शन से ही उत्पन्न है।’ यह महानुभाव है। सर्वरसोपमर्दी श्रीकृष्ण हैं। नहीं तो रसान्तराविष्ट में रसान्तरावेश नहीं बनता। कोई भी प्राकृत कामिनी अपने कान्त के परिरम्भ में स्थित रहकर ही रसान्तर का अनुभव नहीं कर सकती। उस समय उसमें रसान्तर का आवेश असम्भव है। यदि किसी दूसरे रस का आवेश हो सकता है तो केवल श्रीकृष्ण रस का ही। यह दिव्यातिदिव्य विशुद्ध रस है। अत: अन्यत्र कहा गया है- विभिन्न लोकरसों (रागों) में विरसता अति कठिनता से होती है। उत्कृष्ट वैराग्य यदि कोई है तो यही श्रीकृष्ण रस है। यह कोटिशः प्रयत्न करने पर भी मिलता नहीं। संसार के राग शब्द, स्पर्श आदि ऐसे हैं, जो छूटते ही नहीं। परन्तु उनके बीच यदि यह श्रीकृष्ण-राग समाविष्ट हो जाय तो सब छूट जाते हैं। गोस्वामी जी का वचन है- 'रमा-विलास राम-अनुरागी, तजत वमन इव नर बड़भागी।' यह विश्वविलास, साम्राज्य आदि सब रमाविलास है, इसमें सच्ची विरसता-वैराग्य होना कठिन है। पर इसमें कहीं श्रीकृष्णरस समाविष्ट हो जाय तो वे समस्त लोकरस (राग) तुरन्त फीके पड़ जायँ। यही सच्चा वैराग्य है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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