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भक्ति सुधा -करपात्री महाराज
श्री रासपञ्चाध्यायी
अत: कहा गया है-
सचमुच श्रीकृष्ण परमात्मा के चरित से कौन विमुख होगा? वह तत्त्व महामुनि, भक्त, मुमुक्षु, यहाँ तक कि विषयी का भी सेव्य है। “सुनहिं विमुक्त विरत अरु विषयी।” “विषयिन कहँ पुनि हरिगुणग्रामा, श्रवण सुखद अरु मन विश्रामा।” वह गुणानुवाद अच्छा नहीं लगता केवल पशघ्न को, कसाई को, महापापी को। परन्तु सदन कसाई को तो बड़ा अच्छा लगता था। अतः ‘पशुघ्न’ का अर्थ दूसरा है- ‘अपगता शुक् यस्मात् सः, शोक-मोह शून्यस्तत्त्वज्ञानी, तं हन्तीति अपशुघ्नः’ अर्थात महाब्रह्मनिष्ठवधजन्य पातक वाले को ही श्रीहरि गुणानुवाद अच्छा नहीं लगता। परन्तु कितने ही ऐसे पापी भी श्रीहरिगुण-श्रवण महिमा से मुग्ध और मुक्त हुए सुने गये हैं, अतः ‘पशुघ्न’ का अर्थ पशु जिस पर रखकर मारे जायँ, वह काष्ठ खण्ड अथवा पशु जिससे मारे जायँ वह दण्ड (पशवो हन्यते यत्र यद्वा अनेनेति पशुघ्नः शुष्ककाष्ठम) है। अर्थात श्रीहरि कथा से कदाचित् जड़ काष्ठ को ही विराग हो तो हो, पर इन्द्रियवान ऐसा कोई नहीं हो सकता। अत: गोस्वामी जी ने कहा है- “श्रवणवन्त अस को जग माहीं।” .. यदि कोई है, तो वह दुःसंस्कारवश ही। बाकी सभी श्रीकृष्ण परमात्मा को चाहते हैं। इन्द्रियाँ रोती हैं, कोसती हैं- “परान्चि खानि व्यतृणत् स्वयम्भूः” वे ‘प्रियवियोग सम दुख जग नाहीं’ समझती हैं। यह जो प्रकृति के पदार्थ मात्र में हलचल दिखाई पड़ रही है, वह और कुछ नहीं, केवल श्यामसुन्दर के मिलन की उतावली है। सूर्य, चन्द्र, नक्षत्रमण्डल, अणु-अणु जो अविश्रान्त गति से दौड़ रहे हैं, इनका वही एकमात्र उद्देश्य है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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