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भक्ति सुधा -करपात्री महाराज
श्री रासपञ्चाध्यायी
वे सब व्यर्थ ही हैं, जिनसे भगवत्सम्बन्ध का ज्ञान नहीं होता। व्रजांगनाओं का तो स्पष्ट कहना है कि ‘और कोई जाने चाहे न जाने, पर हम तो श्रीनन्दनन्दन के दर्शन को ही नेत्रों का परम फल मानती हैं। अलौकिक साध्य-साधन श्रुतिरूप है- “धर्म जिज्ञासमानानां प्रमाणं परमं श्रुतिः” वही वेद मन्त्रों की अधिष्ठात्री श्रुतिरूप व्रजदेवियाँ यह कह रही हैं। यदि वह तत्त्व श्रुति से अविदित है, तो भावुक कहता है - “श्रवणयोरल श्रवणिर्मम ... तमविलोकयतो नयने वृथा ...।” महर्षि वाल्मीकि भी कहते हैं
आत्मा, बुद्धि, मन, इन्द्रियाँ कोसती हैं- ‘हाय, किस दुष्ट से सम्बन्ध हुआ किसके पल्ले पड़ीं, जो कभी भी एक बार भी उस दर्शनीय के दर्शन न मिले।’ यह ठीक है पर- ‘स्वयं तदन्तःकरणेन गृह्यते।’ वह तो निर्वृत्तिक अन्तःकरण से उपलब्ध होता है। वह तत्त्व तो बद्धि से भी परे है, इन्द्रियों की वहाँ पहुँच ही कहाँ
परन्तु इन्द्रियाँ इससे सहमत नहीं, वे तो कहा करती हैं- ‘हाय, हमारा जन्म उस दर्शनीय के दर्शन से सफल न हुआ, हम उससे वंचित रह गयीं, हमारा रोम-रोम उसके साक्षात्कार के लिये तड़पता है, हम व्याकुल हैं।’ |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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