भक्ति सुधा -करपात्री महाराज
श्री भगवती-तत्त्व
इस तरह स्वात्मवैभव अथवा अचित किंवा अन्तरंगा शक्ति यदि अधिष्ठान से पृथक होकर सत है, तब तो श्रुति सिद्धान्त बाधित होगा। यदि अत्यन्त असत है तो कार्यकारिता न बन सकेगी। विरुद्ध होने से सद्सद्रूपता भी नहीं कही जा सकती। फिर तो परिशेष्यात अनिर्वचनीय मानना होगा। इस तरह अवान्तर चाहे कितने भी मान लिये जायँ, परन्तु अनिर्वचनीयत्वेन रूपेण उन सबकी एकता ही है।
अर्थात देवदत्तनिष्ठ प्रमा अपने प्रमा के प्रागभाव से अतिरिक्त किसी अनादि की प्रध्वंसिनी है, प्रागभाव से अतिरिक्त अनादि भावरूप अज्ञान ही हो सकता है, इस अनुमान से भी अनादि अज्ञान सिद्ध होता है। इसी को ‘‘तम आसीत्'’’ इत्यादि श्रुतियों में तमोरूप भी माना गया है। इस तम को कण्ठतः अनिर्वचनीय कहा गया है-
इत्यादि वचनों से माया, अज्ञान आदिकों की निवर्त्याता कहने से ही अनिर्वचनीयता का बोधन होता है। सत की शक्ति रूप होने से भी इसकी अनिर्वचनीयता बोधित होती है, क्योंकि जैसे वह्नि की शक्ति वह्निरूप नहीं होती, किन्तु वह्नि से विलक्षण होती है, वैसे ही सत् की शक्ति सद्रूप न होकर सत् से विलक्षण ही होती है। वह सद्विलक्षणता भी अनिर्वचनीयता है। इस प्रकार माया की अनिर्वचनीयता ही सिद्ध होती है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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