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भक्ति सुधा -करपात्री महाराज
श्री रासपञ्चाध्यायी
मन्दिर बन्द होने पर अपने में गोकुलस्थ गोपी और भगवान में मथुरास्थ कृष्ण की भावना करनी चाहिये, समझना चाहिये कि श्रीश्यामसुन्दर मथुरा गये, अभी दो-तीन क्षण में ही पधारने वाले हैं। उस भाव की भावना करके देखना चाहिये। कैसी स्थिति प्रकट होती है। इस प्रकार मन्दिरादि में दर्शन के समय संयोग; और पट मंगल के समय वियोग की भावना आदि से नवीन-नवीन भावों की उत्कण्ठा, प्रतीक्षा आदि का उदय होने के भाव चित्त में आने चाहिये। लोक में नायक को नवीन-नवीन श्रृंगारवती नायिकाएँ ही वश में कर सकती हैं, यही स्थिति नायक की है। परन्तु भगवद्विषयक स्थिति बहुत ऊँची है। इस तरह हरिणी अपने नेत्रों को सफल समझती है। पर सफलता तब, जब उनके नेत्र भी इन्हें देखें। ये हरिणी के भाव हैं। ये गोपांगनाएँ किसी साधारण हरिणी को अपनी सखी नहीं बना रहीं, अपितु वह श्रीमोहन मनोहारिणी, गोपीदुःखहारिणी हरिणी है। जैसे हरिणी श्यामसुन्दर को राग से देखती है, वैसे ही वे भी देखते हैं, उनका मन, हृदय-राग का बड़ा ही लोभी है। श्रीश्यामसुन्दर के हरिणी दर्शन में दो भाव हैं, एक तो यह कि इनके नेत्र श्रीवृषभानुनन्दिनी के जैसे हैं। दूसरे यह कि यह सुरंगी है, अन्तरंगा है, अतः इसे वृषभानुनन्दिनी के जैसे राग से देखते हैं। इस तरह हरिणी के सामने व्रजदेवियों का प्रणय-पाथोधि नाना भावों में उद्वेलित्त हो पड़ा और न जाने अभी कितना हो। “.... तन्वन् दृशां सखि सुनिर्वृतिमच्युतो वः।” इस पर बहुत से भाव पीछे कहे गये। इसमें एक भाव यह भी अन्तर्हित है कि हरिणी को श्रीकृष्ण का सन्दर्शन अवश्य हुआ है, पर इसका निषेध कर नहीं सकती। अवश्य ही भगवान् कृष्ण इस मार्ग से पधारे हैं और हरिणी को उन्होंने दर्शन दिया है, क्योंकि वस्तुतः कृष्ण सारसती के नेत्रों में व्रजांगनाओं की मनोहरता, अद्भुतता, मुग्धता, सुभगता, चपलता, तीक्ष्णता, श्यामता आदि का अनुभव हुआ है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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