विषय सूची
भक्ति सुधा -करपात्री महाराज
श्री रासपञ्चाध्यायी
किसी भक्त ने भगवान के इस प्रतिपूजन पर उन्हें उलहना भी दिया- ‘प्यारे श्यामसुन्दर, वह तुम्हारी नीति समझ में नहीं आती, तुम व्रजकर्दम में विचरते हो, पर याज्ञिकों के मण्डप में एक बार भी नहीं पधारे। उनकी लम्बी स्तुतियों का कोई उत्तर नहीं देते, पर व्रज में बछड़ों की भी हुंकार का उत्तर देते हैं, बड़े-बड़े महात्माओं के स्वामी बनना नहीं चाहते, पर इन पुंश्चली गोपियों का दास बनना चाहते हो।’ हरिणांगनाओं की पूजा के फल में भगवान् ने उनका प्रतिपूजन किया, अपने अनुकम्पा पूर्ण नेत्रों से उनकी ओर देख दिया। बड़े-बड़े पुजारियों को पूज्य-स्वरूप आदि परिज्ञान रहता है, पर पूजा में मोह, आसक्ति, बछड़ों की-सी हुंकार एक बार भी नहीं होती। जैसे स्नेह से पुजारी पूजा करेगा, प्रभु भी वैसे ही स्नेह से प्रति पूजन कर देंगे। हरिणांगनाओं को तो मंगलमयी स्वानुकम्पा से स्वविषयक मोह, सूझ आदि प्रभु ने दी कि ‘तुम अपने इन नेत्रों से हमारी पूजा करो’ और फिर प्रति पूजन भी किया। परन्तु इस पूजा की सफलता ‘मूढ़मति’ होने से ही हुई। पुजारी पूजा करते-कतरे पूजा की सामग्री भूल जाय, सेव्य में सेवक की आसक्ति हो जाय, यही मूढ़मतित्व है, यही सच्ची पूजा है और सही सहस्रों करों से स्वीकृत होती है। उन हरिणांगनाओं का ही यह सौभाग्य है कि भगवान् ने उनके समीप वेश परिवर्तन किया, विचित्र वेश धारण किया - ‘उपात्तविचित्रवेषम्।’ विचित्र अर्थात् नायिका वेश धारण किया। मानो श्रीवृषभानुनन्दिनी के साथ वर्तमान होकर हरिणियों के समक्ष श्रीश्यामसुन्दर ने वेश बदला। इतना मूढ़मतित्व, इतनी आसक्ति भगवान् के प्रति हरिणांगनाओं को हुई। अत: पहले मृग पत्नी, फिर कृष्ण पत्नी होने पर भी इनके पतियों को श्रीकृष्ण से द्वेष नहीं हुआ। इस गहराई पर दृष्टि डालने से व्रजांगनाओं ने अपनी शंका का समाधान पा लिया कि इन्हें हमारे प्रति सापत्न्य, ईर्ष्या नहीं है, ये तो हमारी ही तरह अन्तरंग है। अत: उन्हें ‘सखी’ सम्बोधन करने में कोई संकोच नहीं। नित्यकुन्ज मन्दिर में प्रविष्ट सखी कहती है कि ‘हे हरिणांगने! तुम हमारे बराबर हो, क्योंकि हमारी मति उनके सामने मूढ़ हो जाती है। इस तुल्यता से तुम में हमारा सखित्व है, सापत्न्य नहीं। जो कान्त भाववती व्रजांगना हैं, उनका भी सापत्न्य नही, क्योंकि वैसा होने पर कोई भी सौंत पति का पता किसी को न देगी। अतः ये भी ‘सखी’ कहकर परम प्रीति बतला रही हैं। यदि कोई कहे कि एक पत्नीत्वेन सापत्न्य तो होगा ही, तब कहा- वे भगवान् ‘अच्युत’ हैं। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
संबंधित लेख
क्रम संख्या | विषय | पृष्ठ संख्या |
वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज