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भक्ति सुधा -करपात्री महाराज
श्री रासपञ्चाध्यायी
गोपांगनाएँ अपने इस आचरण से शिक्षा देती हैं कि ‘अपनी बन पड़ते वर्ण धर्म, आश्रम धर्म, कुल धर्म, जाति धर्म आदि को कदापि न छोड़ो, सन्ध्योपासनादि नित्य नैमित्तिक कर्मों का बराबर सम्पादन करते रहो। हमें विश्व प्रपंच का स्मरण नहीं, पर फिर भी पति शुश्रूषा आदि में लगी हुई हैं।’ आज तो ऐसा नहीं होता, पर यह ठीक नहीं। यदि वे त्रिलोकपति पूर्ण ब्रह्म पुरुषोत्तम श्रीश्यामसुन्दर ही अपूर्व अनुग्रह द्वारा अपने प्रेमपीयूष-प्रवाह में बहा ले चलें, तो बात अलग है, अन्यथा भगवत्प्रेम को हृदय में सर्वथा गुप्त रखकर वैध कृत्यों में निरन्तर लगे रहना चाहिये, विशिष्ट स्थिति उत्पन्न होने पर वे स्वयं छूटेंगे। ‘पाययन्त्यः’ आदि में “लक्षणहेत्वोः क्रियायाः” इससे हेत्वर्थ में ‘शतृ’ प्रत्यय है। यहाँ पति शुश्रूषण हेतु है। गोपांगनाओं का पति शुश्रूषण उपलक्षण है। पति शुश्रूषणरूप कारण ने ‘श्रीकृष्ण-प्रेम-प्रवाह में बहने रूप कार्य को पुरतः स्थापित किया। “यतः पुतीन शुश्रूषन्त्यः अतः श्रीकृष्णं परमात्मानं ययुः” क्योंकि वे गार्हस्थ्य धर्म, स्वजात्यादि धर्म का पालन करती रहीं, अतः उनका फल देने के लिये श्रीकृष्णचन्द्र परमात्मा ने उन्हें अपनी ओर खींचा। हम भी यदि ऐसा ही करें, तो हमें भी बुलायेंगे। यदि चाहते हो कि भगवान कृष्ण का हम पर भी वैसा ही अनुग्रह हो, तो वैसा ही करें जैसा व्रजांगनाएँ करती थीं, स्वधर्म में लगी थीं। “स्वकर्मणा तमभ्यर्च्य सिद्धिं विन्दति मानवः।” स्वस्वकर्म सम्पादन से ही ऊँची से ऊँची सिद्धि प्राप्त होती है। गोपांगनाएँ प्रेम मार्ग की आचार्य हैं। आचार्य की परिभाषा है-
केवल ग्रन्थ घोटकर आचार्य नहीं बनना है, दूसरों को उपदेश देने मात्र के लिये आचार्य नहीं बनना है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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