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भक्ति सुधा -करपात्री महाराज
श्री रासपञ्चाध्यायी
मनोहर केश वाले श्रीश्यामसुन्दर अथवा प्रसाधनीय केशा श्रीरासेश्वरी, दोनों का दर्शन, संस्पर्श, हे भूमि! तुम्हें प्राप्त हुआ है, तुम धन्य-धन्य हो। व्रजांगनाओं की कल्पना है कि श्रीरसिकशेखर के श्रीजी की वेणी गूँथन के समय, भूमि को पाद स्पर्श होने से उत्पुलकितता हुई और जैसे अपने को श्री श्यामाश्याम के सम्मिलित दर्शन से सोमोल्लंघो आनन्द मिलता है, वैसा ही भूमि के विषय में भी उन्होंने समझा। “अप्यंघ्रिसम्भव उरुक्रमविक्रमाद्वा?” आगे गोपांगनाएँ भूमि से पूछती हैं कि ‘क्या यह आनन्द अंघ्रिसम्भव मात्र है अथवा उरुक्रम के विक्रम से है? उरुक्रम का अर्थ है- बहुत प्रकार के अथवा विशेष क्रम वाला। यहाँ ‘केलि’ अलंकार है। यह बहुत प्रकार के क्रम वेणी गूँथन के लिये पुष्पचयार्थ है। फूल चुनने के लिये श्रीराधा-माधव दोनों का अहमहमिकया विहरण हुआ। यदि उरुक्रम-विक्रम हुआ- ‘क्रमु पादविक्षेपे, क्रमण क्रमः।’ (उरुधा-बहुधा क्रम एक उरुक्रमः, स एव विक्रमो यस्य ययोर्वा तस्मात्), क्या श्रीराधा-माधव के पुष्पचयार्थ विधि-गति वाले विहार से हे भूमि, यह तुम्हें आनन्दोद्रेक-रससंचार हुआ है, अथवा फूल तोड़ने के लिये दोनों चले, उनमें होड़ लगी कि ‘पहले मैं जाकर फूल तोड़ूंगा’, तो दूसरे ने कहा- ‘नहीं, पहले मैं।’ पर फिर भी दोनों से पृथक नहीं हुआ जाता, दोनों मिले चलते हैं। इससे श्रीराधा-माधव मे परस्पर संघर्ष हुआ यह विशुद्ध आनन्दोद्रेक का जनक हुआ। हे भूमि, क्या उसी से यह विशेष उत्पुलक तुझे हुआ है?’ इसी को ‘वराहवपुषा’ से कहा है- ‘वरेण आहवो रतिरणः। तत्पोषकः प्रागल्भ्यभावः तेन) उक्त प्रागल्भ्य यही है कि पहले ही का बाहुल्य, फिर प्रागल्भ्य में प्रतिचुम्बन होने से चुम्बन, आलिंगन होने से आलिंगन और दन्त क्षत, नख क्षत आदि का होना। क्या इन्हें देखकर यह उत्पुलक हुआ? दूसरे, इसी से नायक में नायिकात्व का और नायिका में नायकत्व का उद्रेक हुआ और इसी रूप में वेणी गुँथन प्रस्तुत हुआ। सखि भूमि! क्या इस अद्भुत भाव के अवलोकन द्वारा लतांकुरादिव्याज से तुम्हें यह अति स्निग्ध रोमोद्गम हुआ है? |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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