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भक्ति सुधा -करपात्री महाराज
श्री रासपञ्चाध्यायी
इस प्रकार व्रजांगनाएँ अपने प्राणाधिक प्रिय श्रीश्यामसुन्दर का अन्वेषण करती हुई वृक्षादिकों से कुछ उत्तर न पाकर भूमि से पूछती हैं और विविध भावमय कल्पनाओं से पुष्ट अनुमान द्वारा उसे श्रीकृष्ण-सम्पर्कवती जानकर उसके प्रति विमुग्ध हो जाती हैं और उनकी कल्पनाओं का प्रवाह बढ़ता ही जाता है। निवास और गत्यर्थक ‘क्षि धातु’ से (क्षि निवास गत्योः) ‘क्षिति’ शब्द निष्पन्न हुआ है। उसका अर्थ है सर्वनिवास और गमन की आधार भूता। संसार के सभी प्राणियों की स्थिति, गति भूमि के ही आधार पर है। व्रजांगनाएँ प्रार्थना करती हैं- “हे सर्वाधारभूते भूमि! तुम परोपकारिणी हो, बड़ी दयामयी हो, श्रीश्यामसुन्दर का पता बतलाकर हम पर दया दिखाओ। सखि! सच-सच बतलाओ, तुम्हारी किस तपस्या का यह फल है, जो श्रीश्याम-चरण तुम्हें प्राप्त हुआ है? श्री केशवाङ्घ्रिस्पर्श तुम्हें मिला है? यह तो स्पष्ट है कि तुम्हें उन प्रभु का चरणस्पर्श अवश्य मिला है, क्योंकि उसके बिना तुम्हारा यह लता, झरना रूप अंगरुह, यह हर्षोद्रेक, यह लोकोत्तर उत्सव कभी सम्भव नहीं। अब जानना यह है कि यह तुम्हें भगवान के किस स्वरूप से प्राप्त हुआ? यदि महाविराट का रूप धारण करते समय भगवान वामन से, तो यह हम मान सकती नहीं, क्योंकि उनके द्वारा इतना उत्सव मिलना असम्भव है। यह तो हमारे श्रीश्यामसुन्दर के चरण-सम्मिलन का ही महाफल हो सकता है। आहोस्वित, रसातल से तुम्हारा उद्धार करने समय भगवान वाराह के परिरम्भण का यह फल है। परन्तु जड़-चेतन सब में रस का संचार कर देने वाली यह विशेषता तो उन मुरली-मनोहर में ही है। वामन या वाराह की तो यह बात कहीं भी प्रसिद्ध नहीं। यह तो उन्हीं की महिमा है, जो अमृतमय निज मुखचन्द्र से विनिर्गत वेणुगीत-पीयूष के पान से स्थावर जंगम और जंगम स्यावर हो जाते हैं, वृक्ष भी हृष्यत्त्वक-रोमांच वाले हो जाते हैं यह तुम्हारा लोकोत्तर उत्पुलकोत्सव अवश्य उन्हीं की कृपा का प्रसाद है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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