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भक्ति सुधा -करपात्री महाराज
श्री रासपञ्चाध्यायी
व्रजदेवियाँ अपने प्राणधन श्यामसुन्दर व्रजेन्द्रनन्दन को वृन्दावन धाम में सब जगह ढूंढ़ चुकीं, लता, तरु, सबसे पूछ चुकीं, पर कहीं पता न मिला। अन्त में एक सखी कहती है- “आप सब यों ही पूछ रही हैं, पहले जिनसे आप पूछ रही हैं, वे उन्हें जानते भी हैं या नहीं, यह तो सोच लो। जो जानता है, वही न बतलायेगा? अतः उनसे पूछो, जो उन्हें जानें। वृथा ही इन बेचारे तीर्थवासियों की निन्दा क्यों करती हो?” दूसरी सखी कहती है- “अच्छा सखि, फिर तुम्हीं बतलाओ, किससे पूछें? कौन उन्हें जानता है?” इस पर पहली कहती है- “पूछना ही है तो इस भूमि से पूछो, यह उन्हें अवश्य जानती है, क्योंकि वे कहीं पर छिपे होंगे तो आखिर पृथ्वी पर ही।” यह सुनते ही सबकी दृष्टि पृथ्वी पर गयी और वे कहने लगीं- “ये दूर्वा, तरु, लता इसके रोमांच हैं और यह रोमांच श्रीश्यामसुन्दर के चरण-संस्पर्श से ही हुआ है। यह बड़ी सौभाग्यशालिनी है।” पृथ्वी से कहती है- “हे क्षिते (‘क्षिति’ यह प्रयोग छान्दस है), तुमने कौन तप किया है, जिससे यह संयोग तुम्हें प्राप्त हुआ? यद्यपि हम लोगों का, गोप, यशोदा आदि को भी उनका संयोग प्राप्त होता है, किन्तु वियोग भी होता है। परन्तु तुम्हें तो कभी उनका वियोग होता नहीं। वे श्यामसुन्दर जहाँ भी जाते हैं, तुम्ह कभी नहीं छोड़ते। देवि, वह तप हमको भी बतलाओ, हम भी करें और इस तीव्र विरह ताप से सदा के लिये मुक्त हो जायँ।” कदाचित क्षिति कहे कि इसमें क्या प्रमाण कि मैंने तपस्या की और मुझे श्रीकेशव के चरण का अविच्छिन्न संस्पर्श मिला है? तो इस पर कहती हैं- “केशव के चरण का संस्पर्श बिना तप के नहीं मिलता, तुम्हें वह मिला है, इसका प्रमाण तुम्हारी यह उत्पुलकिता तनु-रोमांच दे रहे हैं- (केशवाङ्घ्रिस्पर्शोत्सवोत्पुलकितांगरुहैर्विभासि)।” यहाँ केवल ‘केशवांघ्रि’ ही कहा, ‘केशवांघ्रिपद्म’ आदि नहीं कहा, क्योंकि पद्मगत सौन्दर्य, सौगन्ध्य, शीतलता, कोमलता आदि के बिना भी केशव-चरण लोकोत्तर आनन्द देने वाला, अनेक गुणगण सम्पन्न है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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