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भक्ति सुधा -करपात्री महाराज
श्री रासपञ्चाध्यायी
“वृथा वृष्टिः समुद्रेषु वृथा तृप्तेषु भोजनम्” की तरह नहीं है। ये तो उस दान की परम अधिकारिणी हैं, उसके लिये लालायित रहती हैं। उनके दर्शन में पलक पड़ने को विघ्न मानती हैं, ब्रह्मा को कोसती हैं- “सखि, जड़ है विधाता।” ऐसे पात्रों को इन रात्रियों ने दान दिया श्रीश्यामसुन्दर का और इसी से उनका रक्षण भी किया। अन्यथा उनका रक्षण होना ही दुःशक था। फिर यह दान पवित्र देश वृन्दावन और तदनुकूल काल में हुआ। यह श्रीशुकदेव कृत वर्णन है। योगीन्द्रवन्द्यपादारविन्द गोपांगना कोविदार की स्तुति करती हैं। देश, काल, पात्र, देश की महत्ता बतलाती हैं, उन रात्रियों ने उद्बुद्ध उभयविध श्रृंगार रूप रसिक शेखर का दान किया, यमुना के किनारे, साक्षात् प्रेमद्रव के पास और परम वियोगिनियों को। भूखे को दान देने का बड़ा महत्त्व है। “कोविदार”! ऐसा देश, काल, पात्र, न मिलेगा। बतलाओ, हमारे प्राणधन श्यामसुन्दर कहाँ हैं? किस ओर गये हैं?” कोविदार एक तो वृक्ष, वैसे ही जड़ और उनकी प्रेमदशा, उनकी बातों से और भी वह स्तब्ध-सा हो गया, कुछ कहता ही नहीं। उसके इस व्यवहार से गोपांगनाओं में असूया का उदय हो आया। वे कहने लगीं- “सखियों! यह “कोविदेभ्यो न रातीति कोविदारः” है। यह केवल ‘कुं भूमिं विदारयतीति कोविदारः” है। यह तो “मातुः केवलमेव यौवनवनच्छेदे कुठारः” है। “चलो, आगे उस जामुन से पूछें, उसका वर्ण श्यामसरीखा है।” तारीफ में उसे ‘जी जये’ उसे उणादि निष्पन्न करती हैं और असूया में वही “जी अभिभवे” से बनने का अधिकारी हो जाता है। आगे मार्ग में अर्क (आक) पड़ा, उससे भी व्रजांगनाओं ने अपने प्राण प्रिय का पता पूछा। व्रजांगनाओं से किसी ने कहा- “बड़े-बड़े महाफली वृक्षों से पूछकर अब इस क्षुद्र से क्या पूछोगी?” तब कहने लगीं- “नहीं, यह गोपीश्वर (वृन्दावनस्थ महादेव) का प्रेमी है, उनके मस्तक पर विराजता है, वे इसको पाकर भक्तों के अभीष्ट पूर्ण कर देते हैं। यह अवश्य प्रष्टव्य है। दूसरे, चन्द्रावली (प्रतिनायिका) आदि से इसका कोई सम्बन्ध नहीं। यह सूर्य की तरह हमारे प्रिय-विश्लेषजन्य दुःखरूप तम को दूर कर दे सकता है। यह “ऋणाति प्रियं गमयति इति अर्क” है। हे अर्क, हे शिवप्रिय, हमें श्याम से मिला दो।” |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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