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भक्ति सुधा -करपात्री महाराज
श्री रासपञ्चाध्यायी
श्रीश्यामसुन्दर इस अपनी विस्मापक रूपराशि का आस्वादन लेने के लिये श्रीराधा बनना चाहते हैं। ऐसे ही जब श्रीव्रजेश्वरी अपने को देखतीं, तब उनके मन में भी यही आता कि मैं श्रीश्यामसुन्दर बनूँ तब इस रूप का आस्वादन मिले। सारांश यह है कि श्रीराधा तथा श्रीकृष्ण दोनों को ही अपने अद्भुत स्वरूप माधुर्य पर मुग्धता है, परन्तु दोनों उसका उपयोग करने में असमर्थ हैं, क्योंकि उपभोग्य वस्तु जब उपभोक्ता से भिन्न हो, तभी उसका उपभोग हो सकता है। यदि उपभोग्य वस्तु उपभोक्ता से अभिन्न, उसका स्वरूपभूत हो, तब उसका उपभोग दुर्घट ही है। अतः श्रीश्यामसुन्दर श्रीराधा बनकर अपने अद्भुत रूप माधुर्य का उपभोग चाहते या करते हैं और श्रीराधा श्रीश्याम बनकर अपनी रूप माधुरी का पान किया करती हैं। इन्हीं दृष्टियों से “विस्मापनं स्वस्य च सौभगर्द्धेः” कहा गया है। एक भाव और भी इस प्रसंग में है- जब कभी सर्वसीमन्तिनी श्रीवृषभानुनन्दिनी के अंग में रसिक शेखर नन्दनन्दन, षोडशवार्षिक कैशोर स्वरूप को अलौकिक, तदेकस्थ अन्यत्र दुर्लभ रूप लावण्य को देखते, तब अपने रूप से भी अधिक मन्त्र मुग्ध हो जाते। उनकी रुचि होती- ‘मैं कब अनन्तानन्त कल्पों की तपस्या द्वारा श्रीप्राणेश्वरी का स्वरूप प्राप्त करके इस मधुर स्वरूप के संस्पर्श का अवसर प्राप्त कर सकूंगा। यद्यपि कहा जा सकता है कि जब श्रीश्याम, श्रीराधा के नारी के रूप में आ जायेंगे, तब उन्हें उनके रूप पर मुग्धता ही कैसे रह जायगी, क्योंकि “मोह न नारि नारि के रूपा” का सिद्धान्त है। तथापि जहाँ असाधारण बात होती है, वहाँ नारी भी उसके रूप पर मुग्ध हो ही जाती है। श्रीव्रजधाम में सभी भाव की उपासना चलती है उसका यही रहस्य है। पीछे कहा गया है- “पुंसां मनोनयननिर्वृतिमादधानम्।” यह बड़े मार्के का वचन है। (पुंसामपि) पुरुषों के भी, तथापि उन पुरुषों के, जो अनंग को भी लजाने वाले हैं- उनके मन और नयन दोनों को उससे आनन्द, आह्लाद मिलता है। इसमें लौकिक स्त्रोत्व, पुंस्त्व-भावना मिटकर अलौकिक भावना होती है। यहाँ तो श्रीश्यामसुन्दर मदनमोहन को भी जो परम पुरुष हैं- पुरुषभाव-निवृत्तिपूर्वक श्रीवृषभानुनन्दिनी-भावना की प्रेप्सा होती है, अस्तु, इस प्रकार एक दूसरे की स्वरूपमाधुरी का पान करने के लिये श्रीराधाकृष्ण दोनों ही परस्पर प्रतिक्षण परिवर्तित होते रहते हैं। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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