विषय सूची
भक्ति सुधा -करपात्री महाराज
श्री रासपञ्चाध्यायी
बरबस ब्रह्मचिन्तन से उनका मन चंचल हो जाता है-
उसी महत्त्व को समझकर श्रीमहालक्ष्मी तुलसी के साथ, सपत्नी के साथ भी श्रीभगवान के चरणरज को ही चाहती हैं। अत: तुलसी, दीर्घदर्शिनी तुलसी पहले से ही उस महामहिम-पदाम्बुज को ग्रहण किये रहती है। क्योंकि लक्ष्मी को सदा यह भय रहता है कि कोई श्रीमद्भगवच्चरणरज उपासक महातपस्वी मुझे अपने वश में न कर ले। इसलिये श्रीमद्भगवद्विप्रयोग से बचे रहने के लिये वह निरन्तर उनके पादाम्बुजरज में संलग्न रहती है। तुलसी इस बात को समझती है, अतः वह पहले ही से उन चरणों से लिपटी रहती है। तभी श्रीश्यामसुन्दर उसके लिये अच्युत हैं। इस प्रकार जो चरणप्रिया है, वही प्रियतम के वक्षःस्थल पर स्थान पाती है। इसी प्रसंग पर एक दूसरी दृष्टि से व्रजांगनोक्ति है- सखि तुलसि! ये मधुव्रत जो गुंजारव कर रहे हैं यह वस्तुतः आपका यशोगान कर रहे हैं। सखि! आपको तो क्या, आपके कारण आपके अनुरागी भौंरों को भगवान श्यामसुन्दर नहीं हटाते। अथवा ये भ्रमर क्या हैं? ये उनकी मूर्तिमती अभिलाषा है; क्योंकि वे श्यामल हैं, अतः ये भी श्यामल हैं। हे तुलसि, आपने उन्हें ऐसा वश में किया है कि वे अपने मनोरथों को मूर्तिमान बनाकर उनके द्वारा आपका यशोगान किया करते हैं और आपका मकरन्द पान किया करते हैं। आप धन्य-धन्य हो। सखि! हमें भी उनसे मिला दो-गोविन्द चरण प्रिये! हम तो श्रीमुखचन्द्र की अधरसुधा की पिपासु हुईं, मानिनी हुईं, अतः भटक रही हैं। सखि, आप चतुर हो। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
संबंधित लेख
क्रम संख्या | विषय | पृष्ठ संख्या |
वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज