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भक्ति सुधा -करपात्री महाराज
श्री रासपञ्चाध्यायी
ये सत्त्वादि तीनों प्राकृत सत्त्वादि से भिन्न हैं। गोपांगना इस ‘तामस’ का आवरक अन्धकार का बड़ा आदर करती हैं। उनका कहना है- ‘हमारे लिये तो कृष्ण-पक्ष के तामस विस्तार में, अभिसरण की सुविधा रहती है, यह पक्ष बहुत उत्तम है।’ उनके यहाँ रज-गोरज-धूलि का भी बहुत आदर है- ‘वह ऐसा व्याप्त हो कि हमें श्रीश्याम का छिपकर दर्शन करते कोई देखे ही नहीं।’ उन्हें यों परम प्यारे साँवरे के दर्शन में ‘रज’ और ‘तम’ दोनों ही अपेक्षित हैं, दूसरे, ‘रज’ को ये श्यामसुन्दर के आगमन की सूचना समझती हैं। क्योंकि सायंकाल गोचारण करके आते हुए श्रीगोपाल के आगमन की सूचना दर्शनोत्कण्ठिता व्रजबालाओं को आगे उड़ती गोधूलि से मिलती। वैसे भी ‘रज’ में (गुण और धूलि दोनों में) क्रिया-चंचलता होती है। प्रियदर्शन पक्ष में चंचलता-विह्वलता का बहुत महत्त्व है। एक भावुक ने कहा- “कृष्णभावरसभाविता मतिः क्रीयतां यदि कुतोऽपि लभ्यते” भाई, प्रेमियो! ‘कृष्णभावरसभावितामति’ यदि खरीदी जा सके तो खरीद लो, चाहे वह किसी भी कीमत पर मिले। अच्छा, अगर ऐसा है तो हम खरीदेंगे, कहिये क्या दाम है? उसकी कीमत, बहुत ही सस्ती लेकिन बहुत ही महँगी भी-चंचलता एकमात्र मन की चंचलता है। बस, प्राणप्रिय के दर्शन के बिना न रह सकता, उससे व्यथित, अशान्त रहना यही उस अमूल्य मति का मूल्य है। यहाँ अशान्ति, बेचैनी जितनी ही बढ़े उतनी ही अधिकाधिक मूल्यवती है-महर्घ है। यों भी ‘रज’ का महत्त्व है। हाँ, तो अवलोकन से सात्त्विक भाव से प्रकाश, अर्थात् गोपांगनाओं को पहले दर्शन, फिर हासरूप राजसभाव से प्राप्ति के लिये विह्वलता, अन्त में तामस से गाढ़ासक्ति, मूर्च्छा हुई। इन्हीं काण्डों से वे मन खो बैठीं। अथवा, प्रेम जगन्मोहन महौषध है-बेहोश करने की दवा है। उन चोर शेखर के पास इसके भण्डार भरे पड़े हैं। उन्होंने यह मोहन महौषध देकर अपने दो साथियों को भेजा। वे हैं-हास और अवलोकन-नेत्र। जब श्रीश्यामसुन्दर चोर हैं तो उनके हास, अवलोकन, नेत्र, हाथ, पाँव सब चोर हैं। चोर के साथी सब चोर, इनमें बाँकेबिहारी के बाँके नेत्र तो पक्के चोर हैं, उनके कोई बचा ही नहीं। एक बार सरसिज सम्राट ने विचार किया कि ‘यह अलबेलो ब्रजसाँवरिया, सबनकूं ठगतो फिरे है, सबकी चोरी करै है, कहुँ मेरीउ शोभाकूं यह चुराय न लेज्यायँ मैं अपनो खूबपक्को बन्दोबस्त कर लऊँ।’ |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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