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भक्ति सुधा -करपात्री महाराज
श्री रासपञ्चाध्यायी
उद्धव भगवान को बहुत प्रिय थे। भगवान उन्हें अपने से जरा भी कम नहीं मानते थे, श्रीसंकर्षण-बलदेव और श्रीलक्ष्मी भी उद्धव से अधिक प्रिय न थीं। उनके लिये ये भगवान के शब्द हैं- “नोद्धवोऽण्वपि मन्न्यूनः न च संकर्षणो न श्रीः...यथा भवान।” वे महाभाग्यवान् उद्धव भी श्रीवृन्दावन के तृण, गुल्म बनने के लिये तपस्या करते रहे। यह भाग्य वृन्दावन के वृक्षों को छोड़कर संसार में और किसका होगा? यो ‘कच्चित’ से व्रजांगना वृक्षों की प्रशंसा ही करती हैं और कहती हैं- आप परम चेतन हो, कृपा करो, बताओ- “दृष्टो वः कच्चिदश्वत्थ” वृक्ष, मानो स्तुति से प्रसन्न हो गये। परस्पर प्रश्नोत्तर-परम्परा चलने लगी-किसको बतायें, व्रजबालाओं, तुम किसे पूछती हो? चोर को। क्या चुराया उसने? हमारा मन। चोर कौन है? नन्दसूनु। नहीं, वह तो विष्णु हैं- व्यापक हैं, नन्दराय ने अनन्त तपस्या से उसे प्राप्त किया है, वह चोर नहीं, आखिर उसने तुम्हारा क्या चुराया? अजी! नन्दसूनु व्यापक-विष्णु होंगे तुम्हारे घर में, हमारे यहाँ तो वे पक्के चोर हैं, उन्होंने क्या नहीं चुराया, हमारे दही को चुराया, नवनीत की चोरी की और अब तो वे हमारे मन को भी चोरी कर भाग गये हैं! मुग्धा गोपी, तुम क्या कहती हो? मन! यह तो तुम्हारे ही पास होगा और दूध, दही, माखन की तो चोरी ही नहीं गिनी जाती। नहीं-नहीं, वे हमारा मन चुरा ले गये हैं, वे हमारे चितचोर हैं। दूध, दही की चोरी पर तो हमने कभी उन्हें ढूँढ़ा ही नहीं। अबकी बार उन्होंने हमारी बड़ी भारी चोरी की है-हमारी मनोमन्जूषा का उन्होंने हरण किया है, उसमे धैर्य, लज्जा, विवेक, विज्ञान, धर्मनिष्ठा आदि रत्न भरे रखे हैं। उसे वे ले गये, अब कुछ रह ही नहीं गया। दही, माखन जाने से हमारी कोई क्षति नहीं थी, हम विवेकादि से रहित नहीं थीं। पर आज हम उनसे हीन होकर बाल बिखेरे घूम रही हैं। हाय, हमारा सर्वस्व लुट गया। बताओ, बड़ा पुण्य होगा। सखियों, तुम क्या कह रही हो? उन्होंने तुम्हारा मन कैसे चुराया? क्योंकि वह तो अन्नमय, प्राणमय के भीतर रहता है, वहाँ से कोई भी उसे कैसे ले सकता है? यह मत कहिये, ‘प्रेमहासावलोकनैः’ वे प्रेम से हृदय में प्रविष्ट हुए, मधुर हास से उस मंजूषा को ग्रहण किया और तुरन्त उलटे पाँव लौट पड़े। प्रेमी हृदय में घुस जाता है, वह हृदय की बात जान जाता है। इस समय वे मोहन; उदासीन, अग्राह्य, अलक्ष्य, अचिन्त्य, अव्यपदेश्य बने हैं। पर पहले इतने अनुरागी बने कि हमारे पादसंवाहन करते, वेणी गूँथ देते, नाचते, गाते, जो हम कहतीं सब करते। इसी प्रेम से वे हृदय में प्रविष्ट हुए। उन प्रेमी का हास याद आता है- मालूम होता है, वे अपने उस हृदयहारी हास से हमें पकड़े हुए हैं। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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