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अतः वहाँ भी मन्वादि सर्वज्ञों के आर्थिक, नैतिक विज्ञान के अनुसार ही सफलता होती है। फिर धर्म के विषय में तो कहना ही क्या है? चिकित्सा के विषय में एक विज्ञ चिकित्सक के सामने दूसरे विषय के लाखों विद्वानों की भी सम्मति का कुछ भी मूल्य नहीं। इसी तरह धर्म के विषय में सर्वज्ञकल्प अनादि वेदशास्त्र को छोड़कर भिन्न-भिन्न सामाजिक निर्णयों का कोई मूल्य नहीं। | अतः वहाँ भी मन्वादि सर्वज्ञों के आर्थिक, नैतिक विज्ञान के अनुसार ही सफलता होती है। फिर धर्म के विषय में तो कहना ही क्या है? चिकित्सा के विषय में एक विज्ञ चिकित्सक के सामने दूसरे विषय के लाखों विद्वानों की भी सम्मति का कुछ भी मूल्य नहीं। इसी तरह धर्म के विषय में सर्वज्ञकल्प अनादि वेदशास्त्र को छोड़कर भिन्न-भिन्न सामाजिक निर्णयों का कोई मूल्य नहीं। |
01:20, 24 मार्च 2018 के समय का अवतरण
विषय सूची
भक्ति सुधा -करपात्री महाराज
भारत ही में अवतार क्यों?
व्यक्तियों की बुद्धियों का कोई ठिकाना नहीं रहता, बड़े से बड़े व्यक्ति साधारण से साधारण विषय में भ्रान्त हो जाते हैं। उस समय उन्हें यही दृढ़ निश्चय होता है कि हम जो कुछ भी समझ रहे हैं वह बिलकुल सत्य है। परन्तु कालान्तर में उन्हें अपने भ्रम और प्रमादों का स्वयं बोध होता है। रज, तम के प्रभाव से बुद्धि-सत्त्व आच्छन्न रहता है। बिना परमात्मभाव व्यक्त हुए योगाभ्यास से भी वह अत्यन्त निरावरण नहीं होता। अतः अज्ञान, भ्रम आदि जीवों के सामने किसी न किसी कक्षा में खड़े ही मिलते हैं। व्यक्तियों के समूहों में-समाज में-भी यही दशा होती है। अतः धर्म-अधर्म के निर्णय में व्यक्ति, समाज या बहुमत का कोई भी मूल्य नहीं है। नैतिक, आर्थिक अभ्युदय में भी केवल व्यक्ति या समाज की निर्धारित नीति के सहारे सदा विजय नहीं हो सकती। अतः वहाँ भी मन्वादि सर्वज्ञों के आर्थिक, नैतिक विज्ञान के अनुसार ही सफलता होती है। फिर धर्म के विषय में तो कहना ही क्या है? चिकित्सा के विषय में एक विज्ञ चिकित्सक के सामने दूसरे विषय के लाखों विद्वानों की भी सम्मति का कुछ भी मूल्य नहीं। इसी तरह धर्म के विषय में सर्वज्ञकल्प अनादि वेदशास्त्र को छोड़कर भिन्न-भिन्न सामाजिक निर्णयों का कोई मूल्य नहीं। अतः गीता के अनुसार वेदशास्त्र ही कार्य-अकार्य कर्मों के निर्णायक शास्त्र हैं। गीता में शास्त्र के नाते वेदों का ही नाम आता है- “वेदैश्व सर्वैरहमेव वेद्यः”, “ऋक्सामयजुरेव च”, “वेदानां सामवेदोऽस्मि” गीता और उसके उद्गम स्थान महाभारत के श्रोता, वक्ता, प्रणेता और भिन्न-भिन्न प्रसंगों में वर्णित सभी महापुरुष वैदिक संस्कृति, सभ्यता के ही मानने वाले थे। अतः गीता के शास्त्र, वेद और वेदाविरुद्ध वेदानुयायी स्मृति, इतिहास, पुराण आदि ही है। इन शास्त्रों के अविरुद्ध और इनके अनुसारी वर्ण, आश्रम के लौकिक, वैदिक सभी गीतोक्त कर्म हैं। लौकिक कर्मों में भी जितने अंश में शास्त्रैकसमधिगम्यता है, मुख्य रूप से वही विधेय है। अन्यांश लोकप्राप्त होने पर भी शास्त्राविरुद्ध होने से उनका गीता-धर्म में संनिवेश है। यह शास्त्र और धर्म यद्यपि विश्वभर के ऐहिक आमुष्मिक सर्वविध कल्याण के मूल हैं, अधिकार के अनुसार सभी लोग इनसे लाभ उठा सकते हैं, तथापि यदि कालक्रम से इनका हृास होने के कारण कोई इन्हें संकीर्ण या संकुचित कहे तो यह उसी का दोष है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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