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<poem style="text-align:center;">'''“कान्तांगसंगकुचकुंकुमरंजितायाः कुन्दस्त्रजः कुलपतेरिह वाति गन्धः।”'''</poem> | <poem style="text-align:center;">'''“कान्तांगसंगकुचकुंकुमरंजितायाः कुन्दस्त्रजः कुलपतेरिह वाति गन्धः।”'''</poem> | ||
− | तो [[गोपियाँ|गोपांगनाएँ]] भगवान के अन्तरंग स्वरूप से परिचित हैं, वे विप्रयुक्ता नहीं हैं, पर जो अन्यान्य मध्या, मुग्धा, प्रगल्भा आदि हैं, उनका साथ देने के लिये वे भी [[कृष्ण|श्यामसुन्दर]] को ढूंढती हैं। हरिणी से इन सबने बहुत पूछा, कितने ही अन्तरंग रहस्य उसे बतलाये, पर वह न पसीजी, उसने उन्हें कुछ नहीं बतलाया। तब उससे उन्हें निराशा उत्पन्न हो गयी और उसी में | + | तो [[गोपियाँ|गोपांगनाएँ]] भगवान के अन्तरंग स्वरूप से परिचित हैं, वे विप्रयुक्ता नहीं हैं, पर जो अन्यान्य मध्या, मुग्धा, प्रगल्भा आदि हैं, उनका साथ देने के लिये वे भी [[कृष्ण|श्यामसुन्दर]] को ढूंढती हैं। हरिणी से इन सबने बहुत पूछा, कितने ही अन्तरंग रहस्य उसे बतलाये, पर वह न पसीजी, उसने उन्हें कुछ नहीं बतलाया। तब उससे उन्हें निराशा उत्पन्न हो गयी और उसी में ईर्ष्या भी। उनमें से एक कहती हैं- ‘पहले तो यह कृष्ण सार की (कृष्ण ही है सार जिसका - कृष्णः सारो यस्य सः) अर्थात कृष्णभक्त हरिण की पत्नी थी, फिर वह कृष्ण पत्नी हो गयी। |
अब वह इससे सापत्न्य भाव रखती है। इसीलिये उनका पता नहीं बतलाती।’ दूसरी कहती है- “सखि! यह बात नहीं है, उन मनमोहन श्यामसुन्दर ने अपने भ्रुकुटी रूप कामकोदण्ड को तानकर कटाक्षशर से इसे विद्ध किया है। इसका हृदय उससे विह्वल हो गया है, केवल इसके नेत्रों में श्रीश्याम-छवि बसी है। अतः हृदय शून्या होने से यह बेचारी हमारे वचनों को सुन नहीं रही है। चकित दृष्टि, विह्वल हृदया वह हमारे प्रश्नों का क्या उत्तर देगी?“ | अब वह इससे सापत्न्य भाव रखती है। इसीलिये उनका पता नहीं बतलाती।’ दूसरी कहती है- “सखि! यह बात नहीं है, उन मनमोहन श्यामसुन्दर ने अपने भ्रुकुटी रूप कामकोदण्ड को तानकर कटाक्षशर से इसे विद्ध किया है। इसका हृदय उससे विह्वल हो गया है, केवल इसके नेत्रों में श्रीश्याम-छवि बसी है। अतः हृदय शून्या होने से यह बेचारी हमारे वचनों को सुन नहीं रही है। चकित दृष्टि, विह्वल हृदया वह हमारे प्रश्नों का क्या उत्तर देगी?“ |
01:18, 24 मार्च 2018 के समय का अवतरण
विषय सूची
भक्ति सुधा -करपात्री महाराज
श्री रासपञ्चाध्यायी
आज भी व्रज में वही गन्ध विस्तीर्ण है पर प्रभु की कृपा से ही सूंघने को मिलता है- “कान्तांगसंगकुचकुंकुमरंजितायाः कुन्दस्त्रजः कुलपतेरिह वाति गन्धः।” तो गोपांगनाएँ भगवान के अन्तरंग स्वरूप से परिचित हैं, वे विप्रयुक्ता नहीं हैं, पर जो अन्यान्य मध्या, मुग्धा, प्रगल्भा आदि हैं, उनका साथ देने के लिये वे भी श्यामसुन्दर को ढूंढती हैं। हरिणी से इन सबने बहुत पूछा, कितने ही अन्तरंग रहस्य उसे बतलाये, पर वह न पसीजी, उसने उन्हें कुछ नहीं बतलाया। तब उससे उन्हें निराशा उत्पन्न हो गयी और उसी में ईर्ष्या भी। उनमें से एक कहती हैं- ‘पहले तो यह कृष्ण सार की (कृष्ण ही है सार जिसका - कृष्णः सारो यस्य सः) अर्थात कृष्णभक्त हरिण की पत्नी थी, फिर वह कृष्ण पत्नी हो गयी। अब वह इससे सापत्न्य भाव रखती है। इसीलिये उनका पता नहीं बतलाती।’ दूसरी कहती है- “सखि! यह बात नहीं है, उन मनमोहन श्यामसुन्दर ने अपने भ्रुकुटी रूप कामकोदण्ड को तानकर कटाक्षशर से इसे विद्ध किया है। इसका हृदय उससे विह्वल हो गया है, केवल इसके नेत्रों में श्रीश्याम-छवि बसी है। अतः हृदय शून्या होने से यह बेचारी हमारे वचनों को सुन नहीं रही है। चकित दृष्टि, विह्वल हृदया वह हमारे प्रश्नों का क्या उत्तर देगी?“ तीसरी कहती हैं- “अभी तो यह मनोहारिणी थी, पर अब सुख हारिणी है, इससे अपनी आशा पूर्ण न होगी। चलो, किसी और से पता लें।” इस प्रकार वे श्रीकृष्ण विरहिणी व्रजदेवियाँ जड़, चेतन, पशु-पक्षी, लता, वृक्ष सभी से अपने प्राणधन घनश्याम का पता पूछती फिरती हैं। इससे सूचित करती हैं कि प्रेमी किसी से भी अपने प्रियतम को पूछ सकता है। उसे स्वभाव से ही यह आशा बनी रहती है कि कदाचित् इनमें से कोई बता ही दे। ‘आनन्दवृन्दावनचम्पू’ में इस भाव का खूब वर्णन किया है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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