सूफ़ी संतों की प्रेमो पासना
तरीकत
शरीअत के नियमों का पालन करने से साधक गुरुदीक्षा पाने का अधिकारी बनता है। उसे गुरु की आज्ञा का पालन करने की क़सम लेनी पड़ती है। मुर्शिद-गुरु मुरीद-साधक को रास्ता बताकर उसमें अल्लाह के इश्क़ की चिनगारी सुलगा देता है।
बाहरी क्रियाओं से ऊपर उठकर हृदय की शुद्धता द्वारा अल्लाह का ध्यान करना तरीक़त है। तरीक़त में साधक को अहं भाव छोड़ने का और इन्द्रियों पर अधिकार करने का अभ्यास करना पड़ता है। इसके लिये उसे भूख-प्यास सहनी पड़ती है। मौन रहना पड़ता है और एकान्त में रहकर साधना करनी पड़ती है।
मारिफ़त कहते हैं परम ज्ञान को। पर वह कोरा-कोरा ज्ञान नहीं होतां उसमें अनुभूति भरी रहती है। इसी का नाम है - इश्क़, मुहब्बत, प्रेम। इसी को ‘वस्ल’ कहते हैं, इसी को ‘वज़्द’। साधक उसमें डूबकर दुनिया को ही नहीं, अपने-आपको भी भूल जाता है।
परंतु मारिफ़त की चढ़ाई आसान नहीं होती। उसके लिये इन सात मुक़ामों से गुजरना होता है -
तौबा (प्रायश्चित, अनुताप) ज़हद (अपनी इच्छा से दारिद्र्य को अपनाना), सब्र (संतोष), शुक्र (अल्लाह के प्रति कृतज्ञता), रिज़ाअ (दमन), तवक्कुल (अल्लाह की दया पर, उसमें रहम पर पूरा भरोसा) और रज़ा (अल्लाह की मर्जी को अपनी मर्जी बना लेना)।
तौबा - कहने को तो छोटा-सा एक शब्द है, पर है वह गुरु-गम्भीर। अबू बकर केतानी कहता है कि उसके भीतर ये छः भाव भरे पड़े हैं -
- पहले किये गये पापों के लिये खेद।
- फिर से पाप की तरफ झुकाव न हो, इसकी सावधानी।
- अल्लाह के लिये किये जाने वाले कामों की कमियाँ दूर करना।
- दूसरों के प्रति जो गलत व्यवहार हो गया हो, उसका बदला चुका देना।
- गलत भोगों से बढ़ा हुआ शरीर का खून-मांस सुखा देना, उसे कम कर देना।
- जिस मन ने पाप का मज़ा चखा है, उसे साधना की कड़ुवाहट का भी मज़ा चखाना।
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