‘श्रीकृष्ण प्रेमी रसखान’
- कहा रसखानि सुख सम्पति सुमार महँ,
- कहा महाजोगी ह्वै लगाये अंग छार को।
- कहा साधैं पंचानल, कहा सोये बीचि जल,
- कहा जीति लाये राज सिंधु वारपार को।।
- जप बार-बार तप संजम बयार ब्रत,
- तीरथ हजार अरे बूझत लबार को।
- सोई है गँवार जिहि कीन्हौं नहिं प्यार,
- नहीं सेयौ दरबार यार नंद के कुमार को।।
प्रेमी भक्ति के लिये अपना सर्वस्व समर्पण ही प्रेम की पराकाष्ठा है। प्राण वे ही हैं जो प्रियतम के लिये सदा बेचैन रहें, रूप वही सार्थक है जो प्रियतम को रिझा ले, सिर वही है जिसे वे स्पर्श कर लें। दूध वही है जिसे उन्होंने दुहवाया हो और दही वही है जिसे उन्होंने ढरका दिया हो, स्वभाव भी वही सुन्दर एवं सार्थक है जिसे वे साँवले-सलोने सुहावने लगें-
- प्रान वही जु रहैं रिझि वापर रूप वही जिहिं वहि रिझायौ।
- सीस वही जिन वे परसे पद, अंग वही जिन वा परसायौ।।
- दूध वही जु दुहायौ वही सोई, दही सु सही जु वही ढुरकायौ।।
- और कहा लौं कहौं रसखान री भाव वही जु वही मन भायौ।
इस प्रकार यहाँ रसखान के काव्य में श्रीकृष्ण-प्रेमतत्त्व का संक्षेप में अवलोकन किया गया है। रसखान कवि की रसिकता, रसज्ञता और श्रीकृष्ण की प्रेमाभक्ति ने उन्हें भक्तजनों में सदा के लिये अमर किया जाता है। हमें भी उनके प्रति ऋणी होना चाहिये। भारतेंदु बाबू हरिश्चंद्र रसखान के सन्दर्भ में कितना सटीक कहा है-
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