योगिराज श्रीकृष्ण -लाला लाजपतराय
7. पुराणों की प्राचीनता
कदाचित आपके मन में यह प्रश्न उपस्थित हो कि श्रीकृष्ण के जीवनचरित्र का पौराणिक विषय के वादानुवादों से क्या प्रयोजन है, तो हमारा उत्तर यह है कि दुर्भाग्यवश श्रीकृष्ण का वह जीवन-वृत्तान्त जो कुछ लोगों को विदित है, अथवा हो सकता है, उस सबका आधार पौराणिक साहित्य ही है। पुराणों ने जातीयता को नष्ट कर मानुषी जीवन को निर्बल बनाने और उसे नीति तथा आध्यात्मिक स्थिति से गिराने में जो काम किया है वह सबसे अधिक उसी महान पवित्रात्मा से संबंध रखता है, जिनकी संक्षिप्त जीवनी लिखने के हेतु हमने आज लेखनी उठाई है। श्रीकृष्ण पर पुराणों ने क्या-क्या अत्याचार नहीं किये हैं? यहाँ तक कि संसार के एक महापुरुष को अपने क्षुद्र भावों के तीरों से ऐसा बेधित किया कि उसकी सूरत ही बदल गई है। इन्हीं पुराणों के कृपाकटाक्ष से अधिकांश आर्य जनों का मन श्रीकृष्ण की ओर से ऐसा फिर गया है और वे उन्हें विषयी और अपवित्र समझने लगे हैं। उसी पौराणिक शिक्षा के कारण बहुत से आर्य शिक्षा पाकर मुसलमान और ईसाइयों के जाल में जा फँसे। कई बार अच्छे-अच्छे सुशिक्षित पुरुषों के मुख से सुना गया है। कि इस धर्मभूमि की समस्त अवनति और आपदाओं के मूल में श्रीकृष्ण ही हैं, जिन्होंने अपनी निकृष्ट शिक्षा से महाभारत का युद्ध कराया और देश को अस्तव्यस्त किया। जब हम किसी आर्य सन्तान के मुख से महात्मा कृष्ण के विषय में ऐसे अपमानसूचक शब्द सुनते हैं, हमारा कलेजा मुँह को आ जाता है। परन्तु इन बिचारे नई सभ्यता वालों का क्या अपराध है। पौराणिक गप्पों ने उन्हें इस प्रकार चक्कर में डाल दिया है, जिससे उनके लिए अपने जातीय साहित्य से सत्य और असत्य को पृथक करना असम्भव प्रतीत होता है। हमारे इस कथन का यह तात्पर्य नहीं है कि पुराणों में सत्य का लेश भी नहीं। हमारा तो मत है कि हमारी जाति का इतिहास कदाचित कुछ पुराणों में भी मिल सके। परन्तु उपमा आदि अलंकार, यार लोगों की मनघड़न्त और हर पीढ़ी के पंडितों के स्वेच्छाचार का इस साहित्य पर इतना अधिकार है कि उसमें से सच्ची घटनाओं का निकालना यदि असम्भव नहीं तो बहुत ही कठिन है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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