योगिराज श्रीकृष्ण -लाला लाजपतराय
पैंतीसवाँ अध्याय
कृष्ण महाराज की शिक्षा
अर्थ- जो पुरुष शास्त्रों की आज्ञा का उल्लंघन कर अपनी इच्छानुसार आचरण करता है उसको न सिद्धि की प्राप्ति होती है, न सुख की और न सच्चा मार्ग ही मिलता है।
अर्थ- इसलिए उचित है कि शास्त्रों के प्रमाण से यह निश्चय किया जावे कि क्या करना चाहिए और क्या नहीं करना चाहिए। शास्त्र विधि को जानकर ही इस संसार में कर्म करना चाहिए। अध्याय 17 और 18 में कर्मकाण्ड के दर्शन का और अधिक विस्तार से वर्णन किया है। तात्पर्य यह है कि इस विषय में सारी गीता का तत्त्व यही है जो निम्नलिखित प्रमाणों में पाया जाता है। जब हम यह विचार करते हैं कि इन सारे उपदेशों से असल मतलब भी यही था कि अर्जुन को लड़ाई के लिए कटिबद्ध किया जावे, तो हमारा यह विचार अंतिम सीमा पर पहुँच जाता है कि वास्तव में यही वह उपदेश है जो कृष्ण महाराज ने कुरुक्षेत्र के मैदान में अर्जुन को दिया। सम्भव है इसकी व्याख्या में धर्म के अन्यान्य अंगों का भी इसी प्रकार वर्णन किया गया हो, परन्तु यह विचार में नहीं आ सकता कि गीता के सारे दर्शन की उस समय शिक्षा दी गई हो। महाभारत में भी जहाँ कृष्ण को वार्तालाप करने का अवसर मिला है वहाँ भी उन्होंने इसी रीति से अपनी युक्तियों का वर्णन किया है। महाभारत का युद्ध समाप्त होने के पश्चात जब युधिष्ठिर ने राजपाट छोड़कर जंगल जाने की इच्छा की तो फिर कृष्ण महाराज उसी उपदेश से युधिष्ठिर को प्रवृत्ति मार्ग पर लाये, यहाँ तक कि उन्हें अश्वमेध यज्ञ करने को उत्साहित किया। युधिष्ठिर को समझाते हुए कृष्ण ने कहा- "हे युधिष्ठिर, यद्यपि तुमने बाहरी शत्रुओं को मार लिया है, परन्तु अब समय आ गया है कि तुम उस लड़ाई के लिए तैयार हो जाओ जो प्रत्येक पुरुष को अकेले ही लड़नी पड़ती है अर्थात अपने मन से ही इस अपार और अथाह मन की महिमा जानने के लिए कर्म और ध्यान के हथियार बरतने पड़ेंगे, क्योंकि इस लड़ाई में लोहे के हथियार काम नहीं देंगे और न मित्र या सेवक ही कुछ सहायता कर सकेंगे। यह लड़ाई तो अकेले ही लड़नी पड़ेगी। इसमें यदि तुम उत्तीर्ण नहीं हुए तो तुम्हारा बुरा हाल होगा।" |
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