योगिराज श्रीकृष्ण -लाला लाजपतराय
चौंतीसवां अध्याय
क्या कृष्ण परमेश्वर के अवतार थे?
अवतारों का अभिप्राय महापुरुषों से है
निःसंदेह अवतारों से अभिप्राय यदि ऐसे महापुरुषों से है जिनकी शिक्षा-दीक्षा से, जिनकी जीवन-प्रणाली से दूसरे मनुष्य अपने जीवन को उत्तम बना सकते हैं और इस संसार-रूपी समुद्र से तैरकर पार हो जाते हैं, तो कोई हानि नहीं। इस बात से कौन इन्कार कर सकता है कि संसार में समय-समय पर ऐसे लागों की अत्यन्त आवश्यकता पड़ती है और ऐसे लोग समय-समय पर जन्म भी लेते हैं जिनकी शिक्षा-दीक्षा, आदेश और उपदेशों से तथा जिनके जीवन की पवित्रता से दूसरे लोग लाभ उठाते हैं। जीवन के इस तूफान-भरे समुद्र में भूलों-भटकों और भँवर में पड़ी हुई नावों के लिए वे मल्लाह का काम करते हैं तथा अत्यन्त निराश, हतोत्साही अशान्त और व्याकुल आत्माओं को शान्ति देते हैं। ऐसे लोग संसार की प्रत्येक जाति में उत्पन्न होते हैं और वे उन मुक्त आत्माओं की श्रेणी में से आते हैं जिनको अपनी उच्च आत्मिक शक्ति के कारण दूसरे मनुष्यों की अपेक्षा परमात्मा की निकटता प्राप्त होती है। इनमें अन्यान्य जीवों से अधिक ईश्वरीय शक्तियाँ होती हैं। यह ईश्वरीय शक्ति कितनी ही अधिक क्यों न हो फिर भी ईश्वर-ईश्वर ही है और मनुष्य-मनुष्य ही है। मनुष्य कभी ईश्वर नहीं हो सकता और न आत्मा परमात्मा के पद को प्राप्त हो सकती है। हमारा विश्वास है कि यह सब पूर्णपुरुष ईश्वर के उस नियम को फैलाने, समझाने और प्रचार करने के लिए जन्म लेते हैं जो ईश्वर ने सृष्टि के आदि में अपने जनों के कल्याण के लिए निज ज्ञान दिया था और जिसे संस्कृत भाषा में वेद कहते हैं। अतः यदि कृष्ण महाराज को इस सिद्धान्त से अवतार कहा जाय तो कोई हानि नहीं। |
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