योगिराज श्रीकृष्ण -लाला लाजपतराय
सम्पादकीय
हे महाराज, पुरुष तो अर्थ का दास होता है, अर्थ किसी का दास नही होता। यही जानकर मैं कौरवों के साथ बँधा हूँ। इन्हीं विषम तथा पीड़ाजनक सामाजिक परिस्थितियों को वासुदेव कृष्ण ने देखा। फलतः शोषित, पीड़ित तथा दलित वर्ग के प्रति उनकी सहानुभूति ने सामाजिक क्रान्ति का सूत्रपात किया। ताप-शाप-प्रपीड़ित त्रस्त जनों के प्रति उनकी संवेदना नाना रूपों में प्रकट हुई। तभी तो राजसभा में तिरस्कृत और अपमानित कृष्णा[1] को उन्होंने सखी बनाया तथा दुर्योधन के राजसी आतिथ्य को ठुकराकर दासी पुत्र समझे जाने वाले विदुर के घर का भोजन स्वीकार किया। लोकनीति के ज्ञाता होने के कारण अपने इस आचरण का औचित्य प्रतिपादित करते हुए उन्होंने कहा-
हे राजन, भोजन करने में दो हेतु होते हैं। जिससे प्रति हो उसके यहाँ भोजन करना उचित है अथवा जो विपत्तिग्रस्त होता है वह दूसरे का दिया भोजन ग्रहण करता है। आपका और मेरा तो प्रेम भाव भी नहीं है और न मैं आपदा का मारा हूँ जो आपका अन्न ग्रहण करूँ। कृष्ण के इस उदात्त स्वरूप एवं चरित्र को शताब्दियों से भारतीय जनता ने विस्मृत कर रखा था। युधिष्ठिर के राजसूय यज्ञ के समय जिस महापुरुष की विनम्रता और शालीनता को हमने विद्वत वर्ग के चरण-प्रक्षालन जैसे विनयपूर्ण कृत्य में देखा उसे ही यज्ञारम्भ में सर्वप्रथम अर्ध्य प्रदान कर सम्पूजित होते हुए भी हम देखते हैं। अपने युग के सर्वाधिक वयोवृद्ध, ज्ञानवृद्ध तथा अनुभववृद्ध भीष्म ने जिसकी चरित्र-प्रशस्ति का गान करते हुए कहा-
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
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