योगिराज श्रीकृष्ण -लाला लाजपतराय पृ. 13

योगिराज श्रीकृष्ण -लाला लाजपतराय

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सम्पादकीय


क्षत्रिय कुमारों के मिथ्या गर्व को संतुष्ट करने के लिए ही एकलव्य जैसे शस्त्र विद्या के जिज्ञासु बनवासी बालक को आचार्य द्रोण ने अपना शिष्य बनाने से इन्कार कर दिया। उस युग में धर्माधर्म, कर्त्तव्य-अकर्त्तव्य, नीति-अनीति का अन्तर प्रायः लुप्त हो चुका था। समाज में अर्थ की प्रधानता थी और जीविका के लिए किसी भी अधर्म को करने के लिए लोग तैयार रहते थे। यह जानते हुए भी कि कौरवों का पक्ष अधर्म, अन्याय और असत्य पर आश्रित है, भीष्म जैसे प्रज्ञापुरुष ने यह कहने में संकोच नहीं किया-

अर्थस्य पुरुषो दासा दासस्त्वर्थो न कस्यचित्।
इति मत्वा महाराज बद्धोऽस्म्यर्थेन कौरवैः।।

हे महाराज, पुरुष तो अर्थ का दास होता है, अर्थ किसी का दास नही होता। यही जानकर मैं कौरवों के साथ बँधा हूँ।

इन्हीं विषम तथा पीड़ाजनक सामाजिक परिस्थितियों को वासुदेव कृष्ण ने देखा। फलतः शोषित, पीड़ित तथा दलित वर्ग के प्रति उनकी सहानुभूति ने सामाजिक क्रान्ति का सूत्रपात किया। ताप-शाप-प्रपीड़ित त्रस्त जनों के प्रति उनकी संवेदना नाना रूपों में प्रकट हुई। तभी तो राजसभा में तिरस्कृत और अपमानित कृष्णा[1] को उन्होंने सखी बनाया तथा दुर्योधन के राजसी आतिथ्य को ठुकराकर दासी पुत्र समझे जाने वाले विदुर के घर का भोजन स्वीकार किया। लोकनीति के ज्ञाता होने के कारण अपने इस आचरण का औचित्य प्रतिपादित करते हुए उन्होंने कहा-

सम्प्रीति भोज्यान्यनानि आपद् भोज्यानि वा पुनः।
न च सम्प्रीयसे राजन् न चैवापद्गता वयम्।।[2]

हे राजन, भोजन करने में दो हेतु होते हैं। जिससे प्रति हो उसके यहाँ भोजन करना उचित है अथवा जो विपत्तिग्रस्त होता है वह दूसरे का दिया भोजन ग्रहण करता है। आपका और मेरा तो प्रेम भाव भी नहीं है और न मैं आपदा का मारा हूँ जो आपका अन्न ग्रहण करूँ।

कृष्ण के इस उदात्त स्वरूप एवं चरित्र को शताब्दियों से भारतीय जनता ने विस्मृत कर रखा था। युधिष्ठिर के राजसूय यज्ञ के समय जिस महापुरुष की विनम्रता और शालीनता को हमने विद्वत वर्ग के चरण-प्रक्षालन जैसे विनयपूर्ण कृत्य में देखा उसे ही यज्ञारम्भ में सर्वप्रथम अर्ध्‍य प्रदान कर सम्पूजित होते हुए भी हम देखते हैं। अपने युग के सर्वाधिक वयोवृद्ध, ज्ञानवृद्ध तथा अनुभववृद्ध भीष्म ने जिसकी चरित्र-प्रशस्ति का गान करते हुए कहा-

वेद वेदांग विज्ञानं बलं चाप्यधिकं तथा।
नृणां लोके हि कोन्योऽस्ति विशिष्टः केशवाट्टते।।
दानं दाक्ष्यं श्रुतं शौर्य हीः कीर्तिर्बुद्धिरुत्तमां।
सन्नति श्रीर्धृतिस्तुष्टिः पुष्टिश्च नियताच्युते।।
ऋत्विग्-गुरुस्तथाऽऽचार्यः स्नातको नृपतिःप्रियः।
सर्वमेतदृहृषी केशस्तस्मादभयर्चितोऽच्युत।।[3]

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. द्रौपदी
  2. उद्योग पर्व 91/25
  3. सभापर्व 38/19.20.20

संबंधित लेख

योगिराज श्रीकृष्ण -लाला लाजपतराय
अध्याय अध्याय का नाम पृष्ठ संख्या
ग्रन्थकार लाला लाजपतराय 1
प्रस्तावना 17
भूमिका 22
2. श्रीकृष्णचन्द्र का वंश 50
3. श्रीकृष्ण का जन्म 53
4. बाल्यावस्था : गोकुल ग्राम 57
5. गोकुल से वृन्दावन गमन 61
6. रासलीला का रहस्य 63
7. कृष्ण और बलराम का मथुरा आगमन और कंस-वध 67
8. उग्रसेन का राज्यारोहण और कृष्ण की शिक्षा 69
9. मथुरा पर मगध देश के राजा का जरासंध का आक्रमण 71
10. कृष्ण का विवाह 72
11. श्रीकृष्ण के अन्य युद्ध 73
12. द्रौपदी का स्वयंवर और श्रीकृष्ण की पांडुपुत्रों से भेंट 74
13. कृष्ण की बहन सुभद्रा के साथ अर्जुन का विवाह 75
14. खांडवप्रस्थ के वन में अर्जुन और श्रीकृष्ण 77
15. राजसूय यज्ञ 79
16. कृष्ण, अर्जुन और भीम का जरासंध की राजधानी में आगमन 83
17. राजसूय यज्ञ का आरम्भ : महाभारत की भूमिका 86
18. कृष्ण-पाण्डव मिलन 89
19. महाराज विराट के यहाँ पाण्डवों के सहायकों की सभा 90
20. दुर्योधन और अर्जुन का द्वारिका-गमन 93
21. संजय का दौत्य कर्म 94
22. कृष्णचन्द्र का दौत्य कर्म 98
23. कृष्ण का हस्तिनापुर आगमन 101
24. विदुर और कृष्ण का वार्तालाप 103
25. कृष्ण के दूतत्व का अन्त 109
26. कृष्ण-कर्ण संवाद 111
27. महाभारत का युद्ध 112
28. भीष्म की पराजय 115
29. महाभारत के युद्ध का दूसरा दृश्य : आचार्य द्रोण का सेनापतित्व 118
30. महाभारत के युद्ध का तीसरा दृश्य : कर्ण और अर्जुन का युद्ध 122
31. अन्तिम दृश्य व समाप्ति 123
32. युधिष्ठिर का राज्याभिषेक 126
33. महाराज श्रीकृष्ण के जीवन का अन्तिम भाग 128
34. क्या कृष्ण परमेश्वर के अवतार थे? 130
35. कृष्ण महाराज की शिक्षा 136
36. अंतिम पृष्ठ 151

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