विषय सूची
भागवत स्तुति संग्रह
पहला अध्याय
बाललीला
षष्ठ प्रकरण
पौगण्डावस्थालीला
उत्तरार्ध
इंद्र तथा कामधेनुकृत स्तुति
खेल में विजयी हुए श्रीदामा को भगवान् ने, वृषभ को भद्रसेन ने और बलराम जी को प्रलम्बासुर ने अपनी-अपनी पीठ पर चढ़ाया। उस समय प्रलम्बासुर बलराम जी को नियत स्थान (भाण्डीर वृक्ष) से आगे ले जाने लगा। किन्तु बलराम जी उसको पर्वत समान भारी प्रतीत होने लगे और वह असुर वेग से न चल सका। असुर ने विचार किया कि गोप स्वरूप से चलना कठिन है; तब तो उसने अपना बड़ा विकराल दैत्यस्वरूप प्रकट किया। यह देखकर बलराम जी ने अपनी मुट्ठी से उसके मस्तक में कठोर प्रहार किया। प्रलम्बासुर मस्तक फूट जाने से मर गया। भगवान ने केवल राक्षसों का ही उद्धार नही किया, किन्तु देवताओं के भी गर्व का नाश किया।[1] उस समय वृन्दावन में यह प्रथा थी कि इन्द्र को संतुष्ट करने के लिए एक विशाल यज्ञ किया जाता था। इंद्र वर्षा के स्वामी हैं और यज्ञ से प्रसन्न होकर वृष्टि द्वारा सकल प्राणियों का उपकार करते हैं। नन्द जी भगवान् के ऐश्वर्य को नही समझ सके। वे सकल कर्मफलदाता भगवान को केवल बालक ही समझते थे। उधर इन्द्र को भी यह अभिमान हो गया था कि ‘मुझसे बढ़कर या मेरे ऊपर दूसरा विधाता नहीं है’। जब यज्ञ के लिए बड़ी-बड़ी तैयारियाँ हो रही थीं, विविध प्रकार के अन्न आदि इकट्ठे किए जा रहे थे तब नन्द जी के प्रति भगवान ने भाषण किया। ‘पिता जी! सकल प्राणी जन्मान्तर में किये गये कर्म के अनुसार उत्पन्न होते हैं और कर्म के अनुसार ही मृत्यु को प्राप्त होते हैं। सुख, दुःख, भय और कल्याण भी उन्हें कर्म से ही प्राप्त होते हैं। (यहाँ मीमांसाशास्त्र का अनुसरण करके कहा है कि कर्म स्वतः फल देने में समर्थ हैं) ईश्वर कर्मफलदाता नहीं माना जा सकता, क्योंकि ईश्वर भी कर्मानुसार ही फल देता है। यदि कर्म न करे तो ईश्वर उसे कोई फल नहीं दे सकता; अतः ईश्वर अजागलस्तनवत निरर्थक हुआ। इस कारण प्राणियों को सुख-दुःख उनके पूर्व-कर्मों से (स्वभाव से) प्राप्त होते हैं और इन्द्र भी कर्म-फल में हेर-फेर करने में समर्थ नहीं है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ इस समय भगवान् की अवस्था 7 वर्ष की थी। भा. 10।57।16
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