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नृगकृत स्तुति
ब्राह्मण ने कहा, यह गाय राजा नृग ने अभी-अभी मुझे दी है। दोनों ब्राह्मण राजा के पास गये और प्रतिग्रह न लेने वाले ब्राह्मण को राजा ने उस गाय के बदले जितनी गायें चाहे उतनी ही देने का वचन दिया। ब्राह्मण ने यह स्वीकार नहीं किया, क्योंकि वह समझता था कि गाय बेचना महान पाप है और वह रुष्ट होकर चला गया, इस प्रकार धर्म में अन्तर पड़ने के कारण राजा नृग गिरगिट योनि को प्राप्त हुआ और द्वारका के किसी कूप में पड़ा रहा। एक समय बालकों ने उस बृहत्काय गिरगिट को कुएँ से बाहर निकालना चाहा, किन्तु वे निकाल न सके। तदनन्तर बालकों के बुलाने पर श्रीकृष्णचंद्र वहाँ पहुँच गये और अपने बायें हाथ से खींचकर उस गिरगिट को बाहर निकाल लिया। भगवान के स्पर्श से वह गिरगिट रूप को त्यागकर दिव्यरूप हो गया। अपने पूर्व पुण्य के बल से भगवान की स्तुति करता हुआ। स्वर्ग को चला गया।
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