विषय सूची
भागवत स्तुति संग्रह
चौथा अध्याय
द्वारकालीला
द्वितीय प्रकरण
श्रीकृष्ण जी के विवाह
भूमिकृत स्तुति
हे भगवान्! मैं भूलि, जल, अग्नि, वायु, आकाश, शब्द, स्पर्श, रस, रूप, गन्ध, देवता, मन, इन्द्रिय, अहंकार, महत् और यह संपूर्ण चराचर जगत् आप अद्वितीय में प्रतीत होते हैं यह भ्रम है। (यह ऐसा ही भ्रम है जैसा चाँदनी का शुक्ति में होता है)।।30।। तस्यात्मजोऽयं तव पादपंकजं भीतः प्रपन्नार्तिहरोपसादितः। हे शरणागतों के दुःख हरने वाले! भौमासुर के इस पुत्र (भगत्त)- को मैंने आपके चरणों में डाला है, परंतु यह भययुक्त है, आप इसकी पालना कीजिए और सकल दोषों को दूर करने वाला अपना कर कमल इसके सिर पर रखिए।।31।। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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प्रकरण | पाठ का नाम | पृष्ठ संख्या |
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