विषय सूची
भागवत स्तुति संग्रह
दूसरा अध्याय
माधुर्यलीला
पंचम प्रकरण
रासलीला
उत्तरार्ध
युग्मश्लोकी गोपीगीत
यह सुनकर गोपियाँ आपस में संकेत करके हँसी। उनका आशय यह था कि भगवान् बहिर्दृष्टि होने से आत्माराम नहीं है, इन्होंने वेणु के नाद द्वारा हम को बुलाया, इस कारण से आप्तकाम नहीं हैं और चतुर होने के कारण अकृतज्ञ भी नहीं है (मूर्ख नहीं है) किन्तु निर्दयी तो हैं। भगवान् इस भाव को समझ गये और बोले ‘अरी सखियों! मैं तो इनमें से कोई नहीं हूँ। मैं अपने भक्तो की सेवा इस कारण नहीं करता कि जिससे उनको निरन्तर मेरा ध्यान बना रहे। जैसे निर्धन पुरुष को यदि धन मिल जाय और फिर वह नष्ट हो जाय तो वह उस धन की चिन्ता में भूख, प्यास आदि कुछ भी नहीं जानता; इसी प्रकार मेरा भक्त भी मेरे अंतर्धान होने पर मेरी चिन्ता में निमग्न होकर देह का भी अनुसंधान नहीं रखता है, किन्तु निरन्तर मेरा ही ध्यान रखता है। तुमने तो मेरी प्राप्ति के लिए योग्य अयोग्य का विचार, धर्म-अधर्म का विचार और बान्धवों के स्नेह का परित्याग तक कर दिये हैं। तुम्हारी सेवा का मैं क्या प्रत्युपकार करूँ? तुम्हारे सत्कार का प्रत्युपकार तुम्हारी ही सुशीलता पर छोड़ता हूँ।’ यह बात सुनकर गोपियों को परम शान्ति मिली। तब गोपियाँ हर्षयुक्त होकर खड़ी हुईं और परस्पर एक ने दूसरे का हाथ पकड़कर मंडल सा बना लिया। इस प्रकार उन्होंने भगवान् के अंतर्धान होने पर जो रास अधूरा रह गया था उसे पूर्ण करने की इच्छा प्रकट की। इस नृत्य में एक अद्भुत बात यह थी कि हर दो-दो गोपियों के बीच एक-एक श्रीकृष्ण खड़े हुए थे अर्थात जितनी गोपियाँ थीं उतने ही श्रीकृष्ण हो गये थे। फिर क्या था, स्वर, ताल, वाद्य, वीणा आदि के सहित अलौकिक दिव्य नृत्य होने लगा।[1] जैसे कोई छोटा बच्चा किसी दर्पणगत अपने प्रतिबिम्ब के साथ क्रीड़ा करता है, अर्थात कभी उस प्रतिबिम्ब के एक अंग को पकड़ता है, कभी दूसरे अंग को, कभी एक अंग को नोचता है, कभी दूसरे अंग को घसीटता है। ऐसे ही भगवान ने गोपियों के साथ क्रीड़ा की।[2] |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ इस नृत्य का वृत्तान्त भागवत के तीसवें अध्याय में दिया गया है, अतएव यहाँ पर उसका अधिक विस्तार से उल्लेख नहीं किया गया।
- ↑ एवं परिष्वंगकराभिमर्शस्निग्धेक्षणोद्दाम विलासहासैः।
रेमे रमेशो व्रजसुंदरीभिर्यथार्भकः स्वप्रतिबिम्बविभ्रमः।।
(भा. 10।33।17)
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