भागवत स्तुति संग्रह पृ. 178

भागवत स्तुति संग्रह

दूसरा अध्याय

माधुर्यलीला
पंचम प्रकरण
रासलीला
उत्तरार्ध

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युग्मश्लोकी गोपीगीत

यह सुनकर गोपियाँ आपस में संकेत करके हँसी। उनका आशय यह था कि भगवान् बहिर्दृष्टि होने से आत्माराम नहीं है, इन्होंने वेणु के नाद द्वारा हम को बुलाया, इस कारण से आप्तकाम नहीं हैं और चतुर होने के कारण अकृतज्ञ भी नहीं है (मूर्ख नहीं है) किन्तु निर्दयी तो हैं। भगवान् इस भाव को समझ गये और बोले ‘अरी सखियों! मैं तो इनमें से कोई नहीं हूँ। मैं अपने भक्तो की सेवा इस कारण नहीं करता कि जिससे उनको निरन्तर मेरा ध्यान बना रहे। जैसे निर्धन पुरुष को यदि धन मिल जाय और फिर वह नष्ट हो जाय तो वह उस धन की चिन्ता में भूख, प्यास आदि कुछ भी नहीं जानता; इसी प्रकार मेरा भक्त भी मेरे अंतर्धान होने पर मेरी चिन्ता में निमग्न होकर देह का भी अनुसंधान नहीं रखता है, किन्तु निरन्तर मेरा ही ध्यान रखता है। तुमने तो मेरी प्राप्ति के लिए योग्य अयोग्य का विचार, धर्म-अधर्म का विचार और बान्धवों के स्नेह का परित्याग तक कर दिये हैं। तुम्हारी सेवा का मैं क्या प्रत्युपकार करूँ? तुम्हारे सत्कार का प्रत्युपकार तुम्हारी ही सुशीलता पर छोड़ता हूँ।’

यह बात सुनकर गोपियों को परम शान्ति मिली। तब गोपियाँ हर्षयुक्त होकर खड़ी हुईं और परस्पर एक ने दूसरे का हाथ पकड़कर मंडल सा बना लिया। इस प्रकार उन्होंने भगवान् के अंतर्धान होने पर जो रास अधूरा रह गया था उसे पूर्ण करने की इच्छा प्रकट की। इस नृत्य में एक अद्भुत बात यह थी कि हर दो-दो गोपियों के बीच एक-एक श्रीकृष्ण खड़े हुए थे अर्थात जितनी गोपियाँ थीं उतने ही श्रीकृष्ण हो गये थे। फिर क्या था, स्वर, ताल, वाद्य, वीणा आदि के सहित अलौकिक दिव्य नृत्य होने लगा।[1] जैसे कोई छोटा बच्चा किसी दर्पणगत अपने प्रतिबिम्ब के साथ क्रीड़ा करता है, अर्थात कभी उस प्रतिबिम्ब के एक अंग को पकड़ता है, कभी दूसरे अंग को, कभी एक अंग को नोचता है, कभी दूसरे अंग को घसीटता है। ऐसे ही भगवान ने गोपियों के साथ क्रीड़ा की।[2]

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. इस नृत्य का वृत्तान्त भागवत के तीसवें अध्याय में दिया गया है, अतएव यहाँ पर उसका अधिक विस्तार से उल्लेख नहीं किया गया।
  2. एवं परिष्वंगकराभिमर्शस्निग्धेक्षणोद्दाम विलासहासैः।
    रेमे रमेशो व्रजसुंदरीभिर्यथार्भकः स्वप्रतिबिम्बविभ्रमः।।
    (भा. 10।33।17)

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प्रकरण पाठ का नाम पृष्ठ संख्या
उपोद्घात
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पहला अध्याय
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चतुर्थ- कुमारावस्था लीला 6. ब्रह्मा कृत स्तुति 46
पंचम- पौगण्डावस्था लीला पूर्वार्ध 7. नाग पत्नियों द्वारा की हुई स्तुति 73
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दूसरा अध्याय
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द्वितीय- चीरहरण लीला 11. ब्राह्मणों द्वारा की हुई स्तुति 117
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पंचम- रासलीला उत्तरार्ध 14. युग्मश्लो की गोपीगीत 176
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तीसरा अध्याय
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द्वितीय- अक्रूर जी का वैकुण्ठदर्शन 19. अक्रूर कृत स्तुति 250
तृतीय- मथुरा की लीलाएँ 20. अक्रूर जी स्तुति 271
चतुर्थ- मथुरा छोड़ना 21. मुचुकुन्द कृत स्तुति 288
चौथा अध्याय
प्रथम- द्वारका लीला 22.रुक्मिणी का पत्र 299
द्वितीय- श्रीकृष्ण जी के विवाह 23. भूमि कृत स्तुति 310
तृतीय- रुक्मिणी के साथ भगवान का विनोद 24. रुक्मिणी कृत स्तव 320
चतुर्थ- बाणासुर का अभिमान भंजन 25. ज्वर कृत स्तुति 335
26. रुद्र कृत स्तुति 341
पंचम- पौण्ड्रक और राजा नृग का उद्धार 27. नृग कृत स्तुति 348
षष्ठ- भगवान का गार्हस्थ्य जीवन 28. बन्दी राजाओं का प्रार्थना पत्र 354
सप्तम- जरासन्ध और शिशुपालादि का वध 29. कारागृह मुक्त राजाओं द्वारा की गयी स्तुति 362
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नवम- देवकी के छः मृत पुत्रों का उद्धार 31. बलि कृत स्तुति 384
32. वसुदेव कृत स्तुति 392
33. श्रुतदेव कृत स्तुति 402
दशम- महाभारत के युद्ध का अंत 34. कुन्ती कृत स्तुति 406
35. भीष्म कृत स्तुति 425
एकादश- भगवान का इन्द्रप्रस्थ से जाना 36. इन्द्रप्रस्थ की स्त्रियों द्वारा कृत स्तुति 431

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