विषय सूची
भागवत स्तुति संग्रह
पहला अध्याय
बाललीला
प्रथम प्रकरण
भगवान का अवतार[1]
देवगणकृत स्तुति
अतः सिद्ध हुआ कि उपासना की अत्यंत आवश्यकता है, इसके किए बिना पुरुषार्थ बन ही नहीं सकता। अद्वैतशास्त्र के द्रष्टा आचार्यचरण ठौर-ठौर पर ऐसा कहते आये हैं कि- उपासना और वैदिक कर्म करने से अंतःकरण के आवरण और विक्षेप का नाश हो जाता है। इस कारण इनको अवश्य करते रहना चाहिए।[2] उपासना के प्रकार का इस प्रकरण के आदि में हम उल्लेख कर चुके हैं। उसकी एक कोटि भगवान के चरित्रों का स्मरण करना है। श्रीमद्भागवत के दशम स्कन्ध में भगवान श्रीकृष्ण की पुण्य लीलाएँ कीर्तित हैं। वहाँ ये पूर्ण ब्रह्म अथवा पूर्ण ब्रह्म के अवतार कहे गये हैं। यदि माया का अस्तित्व और उसका भगवान् के आश्रित होना सिद्ध हो जाय तो इस पक्ष को मानने में कोई अड़चन नहीं हो सकती कि जब भगवान् की इच्छा होती है तब वे अपनी माया को स्वीकार करके इस लोक में अवतीर्ण होते हैं। यही है अवतार का रहस्य। त्रेतायुग में कई ऐसे कारण जुड़ गये थे कि जिससे भगवान को माया का आश्रय लेकर अवतीर्ण होना पड़ा। एक कारण यह था कि पृथ्वी में राक्षस अधिक बढ़ गये थे, वैदिक धर्म की मर्यादा लुप्त होने लगी थी और साधुजन दुःसह दुःख पा रहे थे।[3] किन्तु यह प्रधान हेतु नहीं है। भगवान् को यह सामर्थ्य है कि वे अपने संकल्पमात्र से सब दुष्टों का नाश कर दें. ऐसी सामर्थ्य रहते हुए भी भगवान को उन भक्तों के हेतु अवतार धारण करना अथवा दर्शन देना पड़ता है जिनको यह इच्छा रहती है कि भगवान् मेरे पुत्र हों, पति हों अथवा सखा हों[4] और अपनी माया-शक्ति के द्वारा अवतार धारण करना कोई कठिन काम है नहीं। देखो प्रह्लाद के निमित्त उन्हें नृसिंह रूप में प्रकट होना पड़ा था। ऐसे ही जब पृथ्वी पर राक्षसों का अधिक बोझा बढ़ गया तो पूर्व में वर प्राप्त किए हुए देवकी और वसुदेव जी के यहाँ वे पुत्ररूप से प्रकट हुए। यह ध्यान में रखने की बात है कि जब भगवान श्रीकृष्ण रूप से प्रकट हुए तब उसी समय चतुर्भुजरूप से दर्शन देना, बंदीगृह के द्वारा खुल जाना, यमुना जी का जल भगवान के चरण छूते ही कम हो जाना इत्यादि कार्य महामाया के प्रसाद से संभव हैं ही। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ भागवत पुराण 10।1 और 2
- ↑ विद्यां चाविद्यां च यस्तद्वेदोभय सह। अविद्या मृत्युं तीर्त्वा विद्यामृतमश्नुते।। (ई. वा. 11) यज्ञो दानं तपश्चैव पावनानि मनीषिणाम्।। (गी. 18।5)
- ↑ यदा यदा हि धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत। अभ्युत्थानमधर्मस्य तदात्मानं सृजाम्यहम्।। (गीता 4।7)
- ↑ परित्राणाय साधूनां विनाशाय च दुष्कृताम्। धर्मसंस्थापनार्थाय संभवामि युगे युगे।। (गीता 4।8)
संबंधित लेख
प्रकरण | पाठ का नाम | पृष्ठ संख्या |
वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज