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ब्राह्मणों द्वारा की हुई स्तुति
गोप बिना अन्न प्राप्त किए भगवान् के पास गये। तब भगवान ने गोपों को फिर वहीं भेजा और कहा कि- ‘अबकी बार ब्राह्मणपत्नियों से अन्न माँगना। वे सदा मेरा ध्यान करती हैं; यज्ञशाला में तो वे केवल देहमात्र से हैं। तुम जितना चाहोगे उतना ही अन्न वे तुम्हें दे देंगी।’ बात यही थी कि नित्य भगवान् की कथा सुनने के कारण वे सदा ही उनका दर्शन करने से निमित्त उत्सुक रहती थीं। भगवान का संदेशा सुनकर वे चारों प्रकार के सुगंधयुक्त पदार्थ भिन्न-भिन्न पात्रों से लेकर पति, बंधु, भ्राता और पुत्रों के निषेध करने पर भी जैसे समुद्र की ओर नदी जाती है वैसे ही श्रीकृष्ण चंद्र की ओर चल दीं। वहाँ पहुँचकर देखती हैं कि भगवान का मेघ के समान श्याम वर्ण है, वे पीताम्बर धारण किये हुए हैं, गले में वनमाला, मस्तक पर मोरमुकुट, नाना रंगों से अलंकृत शरीर, कानों में सुंदर कोमल पत्ते उरझे हुए हैं। वे एक हाथ सखा के कंधे पर रखे हुए हैं और दूसरे हाथ से कमल को नचा रहे हैं, सुंदर कपोलों पर घुँघराली अलकें लटकी हुई हैं और मुखकमल मंद मसुकान से सुशोभित है। इस नटवर वेष को देखकर उन ब्राह्मणियों ने नेत्रों द्वारा श्रीकृष्ण भगवान का अपने अंतःकरण में प्रविष्ट करके चिर कालपर्यन्त आलिंगन किया। यह ऐसा आलिंगन था जैसा सुषुप्ति के समय अहंकार की वृत्तियाँ सुषुप्त के साक्षी प्राज्ञ का आलिंगन करके ताप को त्याग देती हैं; ऐसे ही इन ब्राह्मणियों ने संसार के ताप को त्याग दिया।[1] भगवान ने सुमधुर शब्दों से उनका स्वागत किया और उनसे लौटने को कहा ताकि यज्ञ की समाप्ति यथाविधि हो जाय।[2] ब्राह्मण-पत्नियाँ लौटने के लिए राजी नहीं हुई। वे अपने पति-पुत्रादि के निषेध करने पर भी भगवान् के पास आयी थीं अब कैसे वापस जायँ।
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