विषय सूची
भागवत स्तुति संग्रह
दूसरा अध्याय
माधुर्यलीला
प्रथम प्रकरण
माधुर्य का प्रादुर्भाव
वेणुगीत
नग्न होने में लज्जा उसी को होगी जो भगवान को अपनी आत्मा या अपना स्वरूप नहीं मानता। भगवान ने गोप-कन्याओं में इसी ज्ञान की दृढ़ता की थी। रासपंचाध्यायी में भी यही दिखाया गया है कि गोपियाँ भगवान को पूर्णब्रह्म समझती थीं और मुमुक्षुओं की भाँति सब कुछ त्यागकर वहाँ आयी थीं। इन दोनों लीलाओं का विशेष विवरण उचित स्थल में किया जाएगा, यहाँ अधिक लिखने से विस्तार हो जाएगा। प्रस्तुत विषय- अब माधुर्यप्रकरण का उपोद्घात होता है। जो लीलाएँ अब तक हुईं, उनसे प्रकट होता है कि व्रजवासियों की भगवान में पूर्णरूप से आसक्ति थी। किन्तु वह आसक्ति अन्तर्हित थी, उसका प्राकट्य नहीं हुआ था। व्यास जी भी इस माधुर्यभाव को शनैः शनैः प्रकट करते हैं। वर्षा और शरद्- ऋतु में की गयी लीलाओं से यह बात स्पष्ट होती है कि गोपियों की आसक्ति भगवान में थी; परन्तु वह अव्यक्त थी। वहाँ शरद्- ऋतु प्रधान थी और आसक्ति गौण थी। अब उसी आसक्ति का बहिरुग्दम धीरे-धीरे माधुर्य-भक्ति के प्रकरणों से विदित होगा। इसी शरद-ऋतु[1] भगवान ने एक दिन गौओं और गोपालों के साथ अपने चरण चिह्नों से अत्यंत रमणीय वृन्दावन में प्रवेश किया। गोपियाँ उस समय व्रज में थीं। उन्होंने बांसुरी की दिव्य कामोद्दीपक[2]ध्वनि सुनी। उनमें से एक गोपी अपने स्मरणानुसार सौंदर्य माधुर्यनिधि श्रीकृष्ण के दिव्य मंगल विग्रह का सखियों से वर्णन करने लगी। उसने कहा- भगवान का शरीर नट के समान सुडौल है, मस्तक पर मोरमुकुट और कानों में कर्णिकार के फूल शोभित हो रहे हैं, वे सुवर्णसदृश पीला पीताम्बर और वैजयन्ती माला धारण किये हुए हैं। गोपसमूह उनकी कीर्ति का गान कर रहा है और वे वंशी बजा रहे हैं।[3] प्रत्येक स्वर ऐसा मधुर निकलता है कि मानो भगवान ने वंशी के छेदों को अमृत से भर दिया है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ भागवत के दशम स्कन्ध के बीसवें अध्याय में वर्षा और शरद् ऋतु का वर्णन बड़े रोचक वाक्यों से किया गया है।
- ↑ गोपियों का यह काम दिव्य प्रेम है। लौकिक काम नहीं। ‘प्रेमैव गोपरामाणां काम इत्यगमत् प्रथाम्।’
- ↑ मूल श्लोक इस प्रकरण के आदि में देखिए।
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