प्रेम दीवानी मीरा 8

प्रेम दीवानी मीरा - खोल मिली तन गाती


घोर हलाहल गरल सुघा की धार बनाकर चल दी।
कालरूप मृगराज साँवरा यार बनाकर चल दी।।
अविनाशी की गोद में, नित्य झुरमुट में खेलने वाली दिव्य दासी को जगत-वासी मिटाना चाहते हैं, भला यह कैसे सम्भव हो सकता है -
वैरी विपुरा क्या करे जब हरि बचावनहार।
वैरी के दो हाथ हैं, हरि के हाथ हजार।।

हजार हाथों से जिसका अभेद रक्षा-कवच तत्पर है; निज दासी की रक्षा के लिये; भला दो हाथ वाला उसका क्या बिगाड़ सकता है - ‘जाको राखे सारंगपानी उसका कौन बिगाड़ेगा।’ मगर अहंकारी सिर फिरे को प्रभु के लाख चमत्कार दिखायी पड़ जायँ, लेकिन उसका सिर फिरता नहीं। आक्रोशाभिभूत राणा मर्यादा की सीमा रेखा लाँघ जाता है और अन्तिम उपाय करता है। एक भयंकर विषधर काले नाग को शालग्राम की प्रतिमा कहकर मीरा के पास भेजता है -

बन्द पिटारी सर्प पठायो बचननि शालिग्राम बतायो।

कहीं-कहीं वर्णन मिलता है कि ‘माता ने भूषण पहनने के लिये तुमको दिया।’ चाहे औरों के लिये जो हो मगर मीरा के लिये तो सर्वोपरि शोभादायक गलना शालग्राम ही था।

साँप था उसमें भरा सोचा कि खोली जायगी।
नाग के डँसते ही मीराँ खत्म बोली जायगी।।
दीवानी मीरा ने भी एकान्त में प्यार से खोलकर देखा।
साँवली सूरत कन्हैया की नजर आयी तभी।।

मीरा के हर्ष का पारावार नहीं - ‘दिवानी बिकी आज बेमोल। मिले प्यारे गिरधर अनमोल मगन ह्वै नाचति हरि हरि बोल।।’ कैसे? सूना-सूना नहीं - ‘पग घुँघरू बाँध मीरा नाची रे।।’ विषधर काला नाग शालिग्राम को हार बनाकर नाची रे।


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