गीता माता -महात्मा गांधी
अनासक्तियोग
दसवां अध्याय
विभूति योग
बृहत्साम तथा साम्नां गायत्री छन्दसामहम्। सामों में बृहत् (बड़ा) साम मैं हूं, छंदों में गायत्री छंद मैं हूँ। महीनों में मार्गशीर्ष मैं हूं, ऋतुओं में वसंत मै हूँ। द्यूतं छलयतामस्मि छल करने वाले का द्यूत मैं हूं, प्रतापी का प्रभाव मैं हूं, जय मैं हूं, निश्चय मैं हूं, सात्त्विक भाव वाले का सत्व मैं हूँ। टिप्पणी- छल करने वालों का द्यूत मैं हूं, इस वचन से भड़कने की आवश्यकता नहीं है। यहाँ सारासार का निर्णय नहीं है, किंतु जो कुछ होता है वह बिना ईश्वर की मर्जी के नहीं होता, यह बतलाया है और सब उसके अधीन है, यह जानने वाला छली भी अपना अभिमान छोड़कर छल त्यागे। वृष्णीनां वासुदेवोऽस्मि पाण्डवानां धनंजय:। वृष्णि कुल में वासुदेव मैं हूं, पांडवों में धनंजय (अर्जुन) मैं हूं, मुनियों में व्यास मैं हूँ और कवियों मे उशना मैं हूँ। दण्डो दमयतामस्मि नीतिरस्मि जिगीषताम्। शासक का दंड मैं हूं, जय चाहने वालों की नीति मैं हूं, गुह्य बातों में मौन मै हूँ और ज्ञानवान का ज्ञान मैं हूँ। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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