गीता और प्रेम तत्त्व
अर्जुन के लिये भगवान प्रेम की भीख माँगते हैं। यही कारण था कि भगवान अर्जुन का रथ हाँकने तक को तैयार हो गये। अर्जुन के प्रेम से गीता शास्त्र की अमृत धारा भगवान के मुख से बह निकली। अर्जुन रूपी चन्द्र को पाकर ही चन्द्रकान्त मणिरूप श्रीकृष्ण द्रवित होकर बह निकले, जो गीता के रूप में आज त्रिभुवन को पावन कर रहे हैं। प्रेम का स्वरूप है - प्रेमी के साथ अभिन्नता हो जाना, जो भगवान में पूर्ण रूप से थी। इसी से अर्जुन का प्रत्येक काम करने के लिए भगवान सदा तैयार रहते थे। प्रेम का दूसरा स्वरूप है - ‘प्रेमी के सामने बिना संकोच अपना हृदय खोलकर रख देना।’ वीरवर अर्जुन प्रेम के कारण ही निःसंकोच होकर भगवान के सामने रो पड़े और स्पष्ट शब्दों में उन्होंने अपने हृदय की बातें कह दीं। भगवान की जगह यदि कोई दूसरा होता तो ऐसे शब्दों में, जिनमें वीरता पर धब्बा लग सकता था, अर्जुन अपने मन के भाव कभी नहीं प्रकट करते। प्रेम में लल्लो-चप्पो नहीं होता, इसी से भगवान ने अर्जुन के पाण्डित्य पूर्ण, परंतु मोह जनित विवेचन के लिये उन्हें फटकार दिया और युद्ध स्थल में, दोनों ओर की सेनाओं के युद्धारम्भ की तैयारी के समय वह अमर ज्ञान कह डाला जो लाखों-करोड़ों वर्ष तपस्या करने पर भी सुनने को नहीं मिलता। प्रेम के कारण ही भगवान श्रीकृष्ण ने अपने महत्त्व की बातें निःसंकोच रूप से अर्जुन के सामने कह डालीं। प्रेम के कारण ही उन्हें विभूति योग बतला कर अपना विश्व रूप दिखला दिया। नवम अध्याय के ‘राज विद्याराज गुह्य योग’ की प्रस्तावना के अनुसार अन्त के श्लोक में अपना महत्त्व बतला देने, दशम और एकादश में विभूति अध्याय में “मैं पुरुषोत्तम हूँ” ऐसा स्पष्ट कह देने पर भी जब अर्जुन भगवान की मायावश भलीभाँति नहीं समझे, तब प्रेम के कारण ही अपना परम गुह्य रहस्य जो नवम अध्याय के अन्त में इशारे से कहा था, भगवान स्पष्ट शब्दों में सुना देते हैं।
भगवान कहते हैं - ‘मेरे प्यारे! तू मेरा बड़ा प्यारा है, इसी से भाइ! मैं अपना हृदय खोल कर तेरे सामने रखता हूँ, बड़े संकेाच की बात है, हर एक के सामने नहीं कही जा सकती, सब प्रकार के गोपनीयों में भी परम गोपनीय (सर्वगुह्यतमम्) विषय है, ये मेरे अत्यन्त गुप्त रहस्यमय शब्द (मे परमं वचः) हैं। एक बार पहले कुछ संकेत कर चुका हूँ, अब फिर सुन (भूयः शृणु) बस, तेरे हित के लिये ही कहता हूँ, (ते हितं वक्ष्यामि) क्योंकि इसी में मेरा भी हित है, क्या कहूँ? अपने मुँह ऐसी बात नहीं कहनी चाहिये, इससे आदर्श बिगड़ता है, लोक संग्रह बिगड़ता है, परंतु भाई! तू मेरा अत्यन्त प्रिय है (मे प्रियः असि)। तुझे क्या आवश्यकता है इतने झगड़े-बखड़े की? तू तो केवल प्रेम कर। प्रेम के अन्तर्गत मन लगाना, भक्ति करना, पूजा और नमस्कार करना आप-से-आप आ जाता है, मैं भी यही कर रहा हूँ। अतएव भाई! तू भी मुझे अपना प्रेममय जीवन सखा मान कर मेरे ही मन वाला बन जा, मेरी ही भक्ति कर, मेरी ही पूजा कर और मुझे ही नमस्कार कर, मैं सत्य कहता हूँ। अरे भाई! शपथ खाता हूँ, ऐसा करने से तू और मैं एक ही हो जायँगे।[1] क्योंकि एकता ही प्रेम का फल है। प्रेमी अपने प्रेमास्पद के सिवा और कुछ भी नहीं जानता, किसी को नहीं पहचानता, उसका जीवन, प्राण, धर्म, कर्म तथा ईश्वर जो कुछ भी है सो सब प्रेमास्पद ही है। वह तो अपने-आपको उसी पर न्योछावर कर देता है। तू सारी चिन्ता छोड़ दे (मा शुचः)। धर्म-कर्म की परवा न कर (सर्वधर्मान् परित्यज्य)। केवल एक मुझ प्रेम स्वरूप के प्रेम का ही आश्रय ले ले। (मामेंक शरण व्रज) प्रेम की ज्वाला में तेरे सारे पाप-ताप भस्म हो जायँगे। तू मस्त हो जायगा। यह प्रेम की तन-मन-लोक-परलोक-भुलावनी मस्ती ही तो प्रेम का स्वरूप है -
- यल्लब्ध्या पुमान् सिद्धो भवति अमृतो भवति तृप्तो भवति। यत्प्राप्य न किञ्चिद् वाञ्छति न शोचति न द्वेष्टि न रमते नोत्साही भवति। यज्ज्ञात्वा मत्तो भवति स्तब्धो भवति आत्मारामो भवति।[2]
टीका टिप्पणी और संदर्भ
संबंधित लेख
वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज