जायसी की प्रेम-व्यञ्जना
वास्तव में प्रेमी का प्रेमास्पद से मिलने की अदम्य इच्छा प्रेम-पथिक बनने के लिये विवश कर देती है। प्रेमी प्रेम पथ पर चलने के लिये समय की परवाह नहीं करता। उसके शरीर की स्थिति अद्भुत हो जाती है। उसकी आँखों में प्रेमाश्रु मात्र का ही सम्बल होता है - ‘पेम पंथ दिन घरी न देखा। तब देखै जब होइ सरेखा।। जेहि तन पेम कहाँ तेहि माँसू। कया न रकत न नयनन्हि आँसू।।’ प्रेमी का लक्ष्य प्रेमोपलब्धि ही होता है। उसे पाकर वह पुनः इसी नश्वर संसार में नहीं आना चाहता - ‘पेम पंथ जौं पहुँचै पाराँ। बहुरि न आइ मिलै एहि छाराँ।। भलेहि पेम है कठिन दुहेला। दुइ जग तरा पेम जेइँ खेला।।’ दिव्य प्रेमोपलब्धि के उपरान्त प्रेमी कामना रहित हो जाता है अर्थात निष्काम हो जाता है। ऐसे ही निष्काम प्रेम का अनुभव कराते हुए जायसी ने कहा है-
- न हौं सरग क चाहौं राजू। ना मोहि नरक सेंति किछु काजू।।
- चाहौं ओहि कर दरसन पावा। जेइ मोहि आनि पेम पथ लावा।।
ऐसी स्थिति में प्रेमी को तीनों लोक चौदहों भुवन में प्रेम के अतिरिक्त कुछ भी लावण्यमय नहीं दिखता-
- तीन लोक चौदह खण्ड सबै परै मोंहि सूझि।
- पेम छाड़ि किछु और न लोना जौं देखौं मन बूझि।।
इस प्रकार यह प्रेम तत्त्व आकाश में अवस्थित ध्रुव तारे से भी उत्तुंग है। जिसने प्रेम-मार्ग पर चलकर अपना सिर उतार कर जमीन पर नहीं रखा, उसका पृथ्वी पर आना ही व्यर्थ हो गया। प्रेम के बल पर मनुष्य वैकुण्ठ का जीव बन पाता है, अन्यथा उसकी स्थिति एक मुट्ठी धूल के सदृश है -
प्रेम और समुद्र समान हैं। दोनों ही अनन्त एवं अगाध हैं। जिस व्यक्ति ने प्रेम समुद्र का दर्शन कर लिया, उसे साधारण समुद्र बूँद के समान प्रतीत होता है -
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