गीता माता -महात्मा गांधी
गीता-बोध
तीसरा अध्याय
तो वास्तव में तो इंद्रियों का अपने-अपने विषयों में राग-द्वेष विद्यमान ही है। कानों को यह सुनना रूचता है, वह सुनना नहीं; नाक को गुलाब के फूल की सुगंधि भाती है, मल वगैरह की दुर्गन्धि नहीं। सभी इंद्रियों के संबंध में यही बात है। इसलिए मनुष्य को इन राग-द्वेष रूपी दो ठगों से बचना चाहिए और इन्हें मार भगाना हो तो कर्मों की श्रृंखला में न पड़ें। आज यह किया, कल दूसरा काम हाथ में लिया, परसों तीसरा, यों भटकता न फिरे, बल्कि अपने हिस्से में जो सेवा आ जाय, उसे ईश्वर प्रीत्यार्थ करने को तैयार रहे। तब यह भावना उत्पन्न होगी कि हम जो करते हैं, वह ईश्वर ही कराता है। यह ज्ञान उत्पन्न होगा और अहं भाव चला जायगा। इसे स्वधर्म कहते हैं। स्वधर्म से चिपटे रहना चाहिए, क्योंकि अपने लिए तो वही अच्छा है। देखने में परधर्म अच्छा दिखाई दे तो भी उसे भयानक समझना चाहिए। स्वधर्म पर चलते हुए मृत्यु होने में मोक्ष है। भगवान के राग-द्वेषरहित होकर किये जाने वाले कर्म को यज्ञ रूप बतलाने पर अर्जुन ने पूछा, ʻʻमनुष्य किसी की प्रेरणा से पाप कर्म करता है? अक्सर तो ऐसा लगता है कि पाप कर्म की ओर कोई उसे जबर्दस्ती ढकेल ले जाता है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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