विषय सूची
भागवत स्तुति संग्रह
चौथा अध्याय
द्वारकालीला
चतुर्थ प्रकरण
बाणासुर का अभिमान भंजन
ज्वरकृत स्तुति
(ज्वर का पराक्रम सब साकार पदार्थों पर चल सकता है, किन्तु निराकार भगवान के ऊपर नहीं चल सकता। इस कारण स्तुति करता है कि भगवान! तुम ही सबके प्रभु हो।) गुणों का क्षोभक काल, अदृष्ट फल देने वाला दैव, कर्म, स्वभाव, (उसी दैव का संस्कार) सुख-दुखभोक्ता जीव, द्रव्य, (शब्दादि सूक्ष्मभूत) शरीर, प्राण, अहंकार, विकार, (ग्यारह इन्द्रियाँ और पञ्च महाभूत) लिंग शरीर और इसी का बीजांकुरवत प्रवाह यह सब आपकी माया है। इस माया के निषेध का जिस स्वरूप में पर्यवसान होता है ऐसे आपकी मैं शरण में आय हूँ। (भाव यह है कि जैसे बीज से अंकुर और फिर अंकुर से बीज होता चला आता है ऐसे ही शरीर से कर्म, फिर कर्म से शरीर होता रहता है।)।।26।। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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