विषय सूची
भागवत स्तुति संग्रह
चौथा अध्याय
द्वारकालीला
प्रथम प्रकरण
रुक्मिणी के साथ विवाह
रुक्मिणी का पत्र
किन्तु उसके पुत्र रुक्मी की यह तीव्र इच्छा थी कि रुक्मिणी शिशुपाल को दी जाय। अंत में यही निश्चय स्थिर भी रहा। भ्राता का यह निश्चय जानकर रुक्मिणी चित्त में अत्यंत दुःखी हुई और उसने श्रीकृष्ण भगवान को पाने का एक उपाय सोचा। एक सुशील ब्राह्मण को पत्र देकर शीघ्रता से भगवान को लिवा लाने के लिए उसने भेजा। भगवान पत्र पाते ही ब्राह्मण सहित अपने दिव्य रथ में बैठकर विदर्भ देश को चल दिये; क्योंकि विवाह के तीन ही दिन बाकी रह गये थे। भगवान के जाने के उपरान्त बलराम जी ने भी कलह की आशंका समझ कुछ यादवों की सेना लेकर विदर्भ देश को प्रस्थान किया। राजा भीष्मक ने बड़े आदर से भगवान के ठहरने के स्थान और भोजनादि का प्रबंध कर दिया, क्योंकि उन्होंने समझा कि ये विवाह के उत्सव में सम्मिलित होने के लिए आये हैं। उधर शिशुपाल भी अपने मित्र जरासन्ध एवं शाल्व आदि राजाओं तथा अगणित सेना के साथ वहाँ पहुँचा हुआ था। इधर रुक्मिणी जी सूर्योदय से पहले भगवान के आने की प्रतीक्षा कर रही थी। वे ब्राह्मण को न देखकर चिन्तित हो गयीं और कई प्रकार की तर्कना करने लगीं। उन्होंने विचारा कि ‘क्या भगवान ने मेरा पत्र भेजना उद्धतपना समझा? क्या मुझे भगवान् ने अपने अनुरूप नहीं समझा? क्या मैं ऐसी भाग्यहीना हूँ कि विधाता, रुद्र और गौरी भी मेरी सहायिका नहीं हो रही हैं?’ |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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