विषय सूचीरासपञ्चाध्यायी -स्वामी अखण्डानन्द सरस्वतीरासलीला का अन्तरंग-3
गोपी है, कृष्ण हैं, गोपी है कृष्ण हैं, कृष्ण है गोपी है, कृष्ण है गोपी है! एक गोपी एक कृष्ण, एक गोपी एक कृष्ण, एक गोपी एक कृष्ण! दूसरा कोई नहीं; केवल संपूर्ण सृष्टि में कृष्ण और गोपी है। वृत्ति है और आत्मा है, स्फुरण है और चैतन्य है, आनन्द का समुद्र है और तरंग है। और जैसे तरंग के द्वारा गंगाजी विहार करती हैं, जैसे तरंग के द्वारा समुद्र विहार करता है, ऐसे यह परमात्मा का, परमेश्वर का, स्फुरणात्मक विहार होता है। तो उत्तम्भयन रतिपतिं रमयाञ्चकार- यह रतिपति कौन है? यह वृत्तिपति कौन है? अच्छा, शरीरपति कौन है? मालूम है? जो शरीरपति है परमात्मा, जो वृत्तिपति है परमात्मा, वही रतिपति है। चेतन की दृष्टि से वृत्तिपति बोलते हैं, उसी को आनन्द की दृष्टि से रतिपति बोलते हैं। और सत की दृष्टि से उसे ही शरीरपति बोलते हैं। रति माने जहाँ मन रम जाय। मन के रम जाने को रति बोलते हैं। मन कहाँ रमता है? आनन्द में। वृत्ति कहाँ से उठती है? चेतन में से। यह आकार कहाँ से बनात है? सत में से। ये सृष्टि के सारे आकार, अहं और इदं दोनों, सत का आकार है। ये वृत्ति में विषय और विषयी कौन है? चेतन का आकार हैं। ये भोक्ता और भोग्य, गोपी और कृष्ण कौन है? आनन्द के आकार है! अच्छा, अब कल तो आपको और सुनाना है इसलिए थोड़ा सा कल के लिए रख लेते हैं। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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