रासपंचाध्यायी -अखण्डानन्द सरस्वती पृ. 353

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रासपञ्चाध्यायी -स्वामी अखण्डानन्द सरस्वती

प्रवचन 33

गोपियों में दास्य का हेतु-2

वीक्ष्मालकावृतमुखं.........पुलकान्यविभ्रन
वीक्ष्यालकावृतमुखं तव कुण्डलश्रीगण्डसथलाधरसुधं हसितावलोकम् ।
दत्ताभयं च भुजदण्डयुगं विलोक्य वक्षः श्रियैकरमणं च भवाम दास्यः ।।
का स्त्र्यंग ते कलपदायतमूर्च्छितेन सम्मोहिताऽऽर्यचरितान्न चलैत्त्रिलोक्याम् ।
त्रैलोक्य सौभगमिदं च निरीक्ष्य रूपं यद् गोद्विजद्रुममृगाः पुलकान्यबिभ्रन् ।।[1]

‘भवाम दास्यः’ हम तुम्हारी दासी हो रही हैं, पहले श्लोक में कहा था ‘देहि दास्यम्’ हमें सेवा का अवसर दो, हमें दास्य दो; अब यह नहीं कहती हैं कि हमको दास्य दो; गोपियाँ भगवान श्रीकृष्ण से कहती हैं कि हम तुम्हारी दासी हैं- जैसे मीरा बोलती हैं : मीरा दासी जनम-जनम की। हम तो दासी हैं ही । दासी होना रस की उत्पत्ति के लिए आवश्यक है, क्योंकि रस की गति छोटे की ओर होती है। जो बड़ा बनता है या बराबरी करता है या नीचे दबाता है, या डण्डा दिखा के प्रेम लेना चाहता है, उसके प्रति रस का प्रवाह नहीं होता। दास्य सब रसों का मूल है; दास्य में श्रृंगार भी है; और दास्य में जो दास्येजनित सुख में स्थिति है वह शान्त रस भी है। तो असल में जीवन में जो रस का उदय होता है वह निरहम् होने से होता है; अहं का जितना परित्याग होगा रस का उतना ही उदय होगा; वेदान्त की छाया समझो इसको। यदि अंतःकरण निरहम् हो जाय तो उसमें ब्रह्म का आविर्भाव हो जाय, और यदि अंतःकरण निरहम् हो जाय तो उसमें रस का आविर्भाव हो जाय रसो वै सः ब्रह्म रसस्वरूप है।

दास्य शब्द का संस्कृत भाषा में अर्थ है- अपने को उपक्षीण कर देना; किसी के पास ले जाकर अपने-आपको गला देना। तो दास्य माने किसी के स्वामित्व में अपने अहं को गला देना। और इसी अहं के गलने से शान्ति भी आवे, सख्य भी आवे, वात्सल्य भी आवे, श्रृंगार भी आवे; और फिर रस-बिन्दु से बनी अनेक रेखाएँ आकृतियाँ आवें। यदि दास्य नहीं आया- माँ, माँ तो बनती है पर बच्चे के प्रति स्नेह-सेवा नहीं बरतती, मित्र मित्र तो बनता है परंतु अपने सखा के प्रति मैत्री और सेव नहीं देता, कोई पत्नी पति से प्रेम तो करती है परंतु उसको अपना प्रेम और सेवा नहीं देती है- तो रस का उदय नहीं होगा। प्रेम की जड़ विश्वास है, और प्रेमी की अभिव्यक्ति सेवा है। प्रेम सेवा के रूप में प्रकट होता है और विश्वास में से निकलता है।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. श्रीमद्भागवत 10.29, 39-40

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प्रवचन संख्या विषय का नाम पृष्ठ संख्या
1. उपक्रम 1
2. रास की भूमिका एवं रास का संकल्प 12
3. रास के हेतु, स्वरूप और काल 28
4. रास के संकल्प में गोपी-प्रेम की हेतुता 40
5. रास की दिव्यता का ध्यान 51
6. योगमाया का आश्रय लेने का अर्थ 63
7. योगमायामुपाश्रित:-भगवान की प्रेम-परवशता 75
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9. रास-रात्रि में पूर्ण चंद्र का दर्शन 96
10. रास में चंद्रमा का योगदान 106
11. भगवान ने वंशी बजायी 116
12. गोपियों ने वंशी-ध्वनि सुनी 127
13. श्रीकृष्ण के प्रति गोपियों का अभिसार 141
14. जो जैसिह तैसिह उठ धायीं-1 152
15. जो जैसिह तैसेहि उठ धायीं-2 163
16. जो जैसेहि तैसेहि उठि धायीं-3 175
17. जार-बुद्धि से भी भगवत्प्राप्ति सम्भव है 187
18. विकारयुक्त प्रेम से भी भगवत्प्राप्ति सम्भव है 198
19. गोपी दौड़कर गयीं कृष्ण के पास और कृष्ण ने कहा कि लौट-जाओ 209
20. श्रीकृष्ण का अमिय-गरल-वर्षण 214
21. गोपी के प्रेम की परीक्षा-धर्म का प्रलोभन 225
22. ‘लौट-जाओ’ सुनकर गोपियों की दशा का वर्णन 238
23-24. प्रेम में सूखी जा रहीं गोपियाँ आखिर बोलीं 248
(प्रणय-गीत प्रारम्भ)
25. गोपियों का समर्पण-पक्ष 261
26. श्रीकृष्ण में रति ही बुद्धिमानी है 276
27. गोपियों की न लौट पा सकने की बेबसी और मर जाने के परिणाम का उद्घाटन 286
28. गोपियों का श्रीकृष्ण को पूर्व रमण की याद दिलाना 297
29-31. गोपियों में दास्य का उदय 307
32. गोपियों में दास्य का हेतु-1 338
33. गोपियों में दास्य का हेतु-2 353
34. गोपियों में दास्य का हेतु-3 366
35-36. गोपियों की चाहत 376
(प्रणय-गीत समाप्त)
37-39. प्रथम रासक्रीड़ा का उपक्रम 393
40. रास में श्रीकृष्ण की शोभा 429
41. रास-स्थली की शोभा 441
42. रासलीला का अन्तरंग-1 453
43. रासलीला का अन्तरंग-2 467
44. रासलीला का अन्तरंग-3 480
45. रासलीला का अन्तरंग-4 494
46. अंतिम पृष्ठ 500

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