विषय सूचीरासपञ्चाध्यायी -स्वामी अखण्डानन्द सरस्वतीरासलीला का अन्तरंग-3रेमे स्वयं स्वरतिरत्र गजेन्द्रलीलः- यह दूसरा श्लोक आया है रासपञ्चाध्यायी में। सिषेव आत्मन्यवरुद्धसौरतः सर्वाः शरत्काव्यकथारसाश्रयाः शरद् ऋतु की कथा का बड़े-बड़े कवियों ने वर्णन किया है। बोले- जितने कवि पहले हुए हैं और जो वर्णन कर चुके हैं, जो आज कर रहे हैं और जो आगे वर्णन करेंगे, उनमें जिस-जिस रस का वर्णन भूत में हुआ है, वर्तमान में हो रहा है और भविष्य में होगा, अभी उन सब रसों का सेवन भगवान श्रीकृष्ण ने रासलीला के प्रसंग में किया। कहा- क्यों? बोले- श्रीकृष्ण अखिल रसामृत-मूर्ति हैं; संपूर्ण रस उन्हीं में से निकलता है; और देखो- क्रिया सब वही है, परंतु विकार बिलकुल नहीं है, भला! गोपी हजारों हैं पर द्वैत नहीं है, भला! विहार है परंतु काम नहीं है, काम है परंतु विकार नहीं है। क्या लीला है। इसको बोलते हैं ब्रह्म में ब्रह्म का स्फुरण-ब्रह्मणि ब्रह्म भ्रम्यते; आनन्द में आनन्द की तरंग, चित्त में चित्त का स्फुरण सतता में सतत के आकार का स्फुरण। जैसे एक अखण्ड सतता में आकार होते हैं, एक अखण्ड चेतन में स्फुरण होते हैं, वैसे ही एक ही परमानन्दस्वरूप भगवान अनन्त-अनन्त गोपियों के रूप में स्फुरित होकर के और उनके साथ विहार कर रहे हैं। आप सब भी गोपी हैं भला। आपके मन की एक-एक रेखा एक-एक बिन्दु है; आपके हृदय की पोथी, आपके हृदय के वाक्य आपके हृदय के शब्द, अक्षर, रेखा और एक-एक बिन्दु आनन्दस्वरूप है, जैसे गंगाजी बूंद-बूंद हैं पर हैं गंगा वैसै। यह आनन्दस्वरूप बूँद-बूँद होकर के, गोपी-गोपी होकर के, स्फुरित हो रहा है। यह परमानन्दस्वरूप चित्तस्वरूप वृत्ति-वृत्ति होकर के स्फुरित हो रहा है। यह सत्ता आकार-आकार हो करके प्रत्येक आकार में स्फुरित हो रही है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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