विषय सूचीरासपञ्चाध्यायी -स्वामी अखण्डानन्द सरस्वतीप्रवचन 14जो जैसिह तैसिह उठ धायीं-1दुहन्त्योभिययुः कश्चिद.....कृष्णान्तिकं ययुः दुहन्त्योऽभिययः काश्चिद् दोहं हित्वा समुत्सुकाः । गोपियों ने बाँसुरी सुनी और सुनकर जैसी थीं वैसी ही चल पड़ीं। शरद ऋतु पुर्णिमा की रात्रि, चाँदनी छिटकी हुई, सारा वन चाँदनी के रंग में सराबोर, शीतल-मन्द-सुगन्ध वायु चल रही; एक ऊँचे टीले में खड़े होकर त्रिभंगललितभाव से पाँव पर पाँव रखकर पीताम्बरधारी, वनमालाधारी, मुरलीमनोहर, विशालभाल, गोरोचन का तिलक, भौहों में अनुग्रह, हाथों में प्रेम, होठों में मुस्कान थी, थोड़ी आँखें टेढ़ी, शिर थोड़ा लटका हुआ, ऐसे साँवरे-सलोने व्रजराजकुमार ने बाँसुरी बजायी। जैसे शब्द के द्वारा लोक में आमंत्रित किया जाता है कि ‘कदम्ब तरे आ जइयो कटीले काजलवारी’ ऐसे ही बाँसुरी की ध्वनि रसदान के लिए प्रेम का आमंत्रण है। इस प्रेम-निमंत्रण को प्राप्त करने के बाद एक समस्या खड़ी होती है। वह गोपियों के सामने तो खड़ी नहीं हुई, लेकिन लौकिक पुरुषों के मन में ऐसी समस्या खड़ी हो सकती है कि आखिर कर्म कब तक करना चाहिए? यावज्जीवं अध्येयं व्याकरणम्- अर्थात जब तक जियो व्याकरण पढ़ो। जो जिसमें अटक जाता है, जो जिसमें फँस जाता है, जो जिसमें लग जाता है, उससे छूटना नहीं चाहता। कपड़े का व्यापारी कहता है- जिंदगी भर कपड़ा बेचेंगे; मल्लाह कहता है कि जिन्दगी भर नाव चलावेंगे; जो लोग आफिसों में काम करते हैं, वे रिटायर होने के समय कहते हैं कि दो-तीन वर्ष और रह जाते तो अच्छा होता। काम आखिर कब तक करना चाहिए? कर्म की आखिर कोई सीमा तो है नहीं, जिन्दगी-भर मजदूरी, जिन्दगी भर बेगार। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ भाग. 10.29.5-7
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