विषय सूचीरासपञ्चाध्यायी -स्वामी अखण्डानन्द सरस्वतीप्रवचन 35-36गोपियों की चाहत
तीनों लोकों में तमोगुण रजोगुण सत्त्वगुण में पड़ी हुई ऐसी कौन सी स्त्री है जो तुम्हारी कलपद अमृतमय वेणुनाद से सम्मोहित होकर आर्यचरित्र से विचलित न हो जाय। गोपियाँ मानो संपूर्ण स्त्रीजाति का प्रतिनिधित्व कर रही हों, सबकी ओर से बोल रही हैं। जो तामसिक प्रकृति के होते हैं वे मूढ़तावश कहीं न कहीं फँसे होते हैं। न उनको धर्म का ज्ञान है, न भगवान का ज्ञान है, न भक्ति का ज्ञान है। तो ऐसे लोग अधिकांश न धर्म समझें, न अधर्म समझें, जहाँ फँस गये, ‘पोंगा-पंथी’ हो गये। इसके लिए- शब्द चलते हैं- पोंगापंथी, दकियानूसी। ये सब धर्म की भाषा में गाली दी जाती है। वे भी जब बाँसुरी की ध्वनि वेणुनाद सुनते हैं तो उनकी मूढ़ता छूट जाती है क्योंकि वह स्वरलहरी उनके सुषुप्त मन को जाग्रत कर देती है। दूसरे जो राजरसिक लोग हैं उनको भी धर्म अधर्म का पता नहीं है। जहाँ उनको मजा आवे वही काम करते हैं; वे तो राग-द्वेष में फँसे हुए हैं। जो गुणी लोग जो हैं वे रागमूलक धर्म में ही फँसे हुए हैं। तो यह भगवान की बाँसुरी उनको कहती हैं कि यहाँ से ज्यादा मजा इधर है, आओ! उनको वेणुनाद अमृतध्वनि से अपनी ओर खींच लेता है। और नारायण, सात्त्विक लोग जो हैं वे अभिमान में फँसे हुए हैं कि हम बड़े धर्मात्मा, उनकी तो महाराज, यह तारीफ है कि हम कितनी बार मिट्टी से हाथ धोते हैं, इसी में वे अपनी तारीफ समझते हैं। इंद्रिय- शुद्धि की कि नहीं, मन शुद्ध किया कि नहीं, भगवान का भजन होता है कि नहीं इस पर उनकी दृष्टि नहीं है; कपड़ा हम सूती पहनते हैं कि रेशमी, इसी पर दृष्टि है। तो यह धर्माभिमान भी भगवान से विमुक करने वाला है। इसको भगवान कलपद, अमृत और वेणुनाद से आकर्षित करते हैं। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ श्रीमद्भागवत 10.29. 40-41
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