विषय सूचीरासपञ्चाध्यायी -स्वामी अखण्डानन्द सरस्वतीप्रवचन 17जार-बुद्धि से भी भगवत्प्राप्ति सम्भव हैतमेव परमात्मानं....... किमुताधोक्षजप्रियाः कृष्णं विदुः परं कान्तं न तु ब्रह्मतया मुने । वे कहते हैं कि विरह से गोपियों को इतना ताप हुआ कि उनके भगवत् प्राप्ति में प्रतिबन्धक जो पापकर्म के संस्कार थे वे नष्ट हो गये; मन-ही-मन मिलन में, आलिंगन में, जो आनन्द हुआ उस आनन्द से जितने-स्वर्गादिप्रापक- पुण्य कर्म के प्रतिबन्धक संस्कार थे वे सब भस्म हो गये। भक्त लोग ईश्वर की प्राप्ति में अज्ञान को प्रतिबन्धक नहीं मानते हैं। यह बात अगर आपके ध्यान में नहीं रहेगी तो भक्ति का सिद्धांत समझ में नहीं आयेगा। वे कहते हैं कि यह जो संसार में कर्मवासना, भोगवासना-रूप-विक्षेप है इसी ने हमको ईश्वर से जुदा कर दिया है। हम यह कहेंगे तो यह पावेंगे, यह करेंगे तो यह पावेंगे; यह पाने के लिए यह करना चाहिए- इसी में दुनिया कैसे फँस गयी है। पाने के लिए भी बहुत है और करने के भी बहुत है- श्रोतव्यादीनि राजेंद्र नृणां सन्ति सहस्रशः । सुनते-सुनते कहीं दुनिया का अंत हो जाय, करते-करते कहीं दुनिया का अंत हो जाय, पाते-पाते कहीं विषय-भोगों का अंत हो जाय, ऐसा सम्भव नहीं है। तो बोले- भगवद्- भाव में डूब जाना चाहिए। दुनिया को जहाँ का तहाँ रहने दो और तुम भगवान् की भावना में डूब जाओ। भगवान् का अज्ञान है तो रहने दो; वह उनकी प्राप्ति में बाधक नहीं है। यदि शंका हो कि हम तो भगवान् को पहचानते नहीं है, तो भाई, वे पहचान बता देंगे। शक्कर तुम्हारी जीभ में पड़ जाय तो क्या तुम्हारी जीभ यह नहीं बतायेगी कि शक्कर है? खटाई-नमक तुम्हारी जीभ पर पड़े तो क्या मालूम नहीं पड़ेगा नहीं पड़ेगा कि खटाई है कि नमक है? तो जब ईश्वर तुम्हारे सामने आयेगा तो तुमको साफ मालूम पड़ जायेगा कि यही ईश्वर है। परंतु दुनिया कर्म और भोग में मग्न है। कर्म और भोग में जो मन फँस गया है उससे ईश्वर के भाव में डूबने का मजा नहीं आता। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ श्रीमद्भागवत 10.29.11-13
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