विषय सूचीरासपञ्चाध्यायी -स्वामी अखण्डानन्द सरस्वतीप्रवचन 4रास के संकल्प में गोपी-प्रेम की हेतुतारात्रीर्वीक्ष्य अब आओ, भगवान की लीला में प्रवेश करें। भगवान का कैवल्य और भगवान की लीला। जिसका कैवल्य, उसी की लीला। लीला न हो तो कैवल्य की सिद्धि बिलकुल नहीं हो सकती। लीला का निषेध करने पर तब कैवल्य की सिद्धि होती है; परंतु जो लोग लीला नहीं मानेंगे कैवल्य उनके अनुभव का विषय ही नहीं होगा। यह वेदान्त की एक बात आप देखो- पहले हम यह बमगोले की तरह डालते हैं- यदि लीला का आरोप करेक उसका अपवाद किया जायेगा तब कैवल्य की सिद्धि होगी और यदि लीला का आरोप किया ही नहीं जाएगा तो किसका अपवाद करके कैवल्य को सिद्धं करेंग? इसलिए वेदान्त में प्रपंच की उत्पत्ति, स्थिति और प्रलय का जितना उपयोग है ब्रह्म की सिद्धि के लिए, लीला का भी उतना ही प्रयोग है। अब कहो यहाँ वेदान्त ही बघारने लग गये; तो यह इसलिए कहा कि जो बुद्धिमान पुरुष हैं वे ‘लोकवत् तु लीला कैवल्यं’ इस वेदान्त-दर्शन के सूत्र को समझें। श्रीशुक उवाच एक चीज ऐसे आ गयी भगवान के सामने कि देखकर उनको अपना अकेलापन खेलना लगा। ‘भगवानपि ता रात्रीः वीक्ष्य रन्तुं मनश्चक्रे’- भगवान हैं अपने आनन्द में परिपूर्ण ‘स्वानन्दरससंतृप्त, आह्लादिनीसमासंश्लिष्ट, सवयं आल्हादस्वरूप, परंतु एक चीज ऐसी आ गयी भगवान के सामने। जादू तो वह जो सिरपर चढ़कर बोले। सौन्दर्य तो वह जो भगवान को भी अपनी ओर खींच ले, माधुर्य तो वह जो भगवान को भी अपनी ओर खींच ले।’ ‘भगवानपि ता रात्रीर्वीक्ष्य रन्तुं मनश्चक्रे’- ऐसी रात ऐसी रात ऐसी रातें आयीं- ‘रात्रीः’- जिनको देखकर भगवाने के मन में विहार का संकल्प उठा कि अगर ऐसी रात में भी विहार न करेंगे तो, अगर ऐसी रात में भी बाँसुरी न बजेगी, अगर ऐसी रात में भी नृत्य नहीं किया, अगर ऐसी रात्रि में भी गोपियों के साथ क्रीड़ा नहीं की तो हमारा भगवान बनना व्यर्थ गया। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ भाग. 10.29.1
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