विषय सूचीरासपञ्चाध्यायी -स्वामी अखण्डानन्द सरस्वतीप्रवचन 37प्रथम रासक्रीड़ा का उपक्रम
भगवान से राग का उदय होना- इसका अर्थ है संसार से राग का छूट जाना, क्योंकि राग की प्रकृति है एक से होना। जब भगवान से राग होता है तो संसार से वैराग्य हो जाता है; नहीं तो जिन्दगी भर लोग घटाकाश-मठाकाश करते रह जाते हैं, अधिष्ठान और अध्यस्त की चर्चा करते-करते जिंदगी बीत जाती है लेकिन संसार से वैराग्य नहीं होता। वैराग्य हुए बिना अंतःकरण शुद्ध नहीं होता, अंतःकरण शुद्ध हए बिना तत्त्वज्ञान नहीं होता, तत्त्वज्ञान हुए बिना अविद्यानिवृत्ति नहीं होती, अविद्यानिवृत्ति हुए बिना अपने नित्य शुद्ध-बुद्ध-मुक्त स्वरूप में अवस्थिति नहीं होती। वैराग्य तो साधन है, होना चाहिए। तो पहली बात है भगवान से राग होकर संसार से वैराग्य होना। अब जिससे राग होता है, जिससे मिलने के लिए प्रयत्न भी होता है।। तो जब गोपियों के मन में श्रीकृष्ण से मिलने के लिए राग हुआ- तब उन्होंने ‘कात्यायनी’ व्रत किया। यह धर्म हुआ। भगवान ने स्वीकार किया। तो रोज-रोज सायंकालीन भगवान का जो दर्शन है न – गोरजश्छुरितकुन्तलबद्धबर्हं और जो वंशीध्वनि का श्रवण है वह पूर्वराग का प्रसंग है और कात्यायनी- पूजन आदि जो है वह भगवत्प्राप्ति के प्रयास का प्रसंग है। वरदान मिला। वंशी सुनकर मोहित होना, रूप देखकर मोहित होना और कृष्ण के लिए प्रयत्न करना-इतना तो गोपियों का पौरुष था; और जब भगवान की स्वीकृति मिल गयी, उन्होंने बाँसुरी बजायी तो सबकी सब गोपियाँ आयीं, घेरकर खड़ी हो गयीं और श्रीकृष्ण स्वयं उदासीन, तटस्थ, निरपेक्ष असंग आत्मा। अब गोपियों के हृदय में जो उद्गार निकला उससे यह प्रतीत होता है कि गोपियों के हृदय में श्रीकृष्ण के प्रति कितना प्रेम है और भगवान से कोई प्रेम करे तो कैसा प्रेम करे। गोपियों ने कह दिया कि अब हम एक कदम इससे पीछे नहीं हट सकतीं और कृष्ण यदि स्वीकार नहीं करेंगे तो हम विरहाग्नि से शरीर को प्रज्वलित करके और ध्यानाग्नि में अपने सूक्ष्म शरीर को तपाकर तुम्हारी पदवी को प्राप्त करेंगी। इतनी दृढ़ता, इतनी निष्ठा, इतनी प्रीति। असल में न तो इस सम्वाद से कोई गोपियों का हित था और न तो कोई श्रीकृष्ण का हित था। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ श्रीमद्भावगत 10.29. 42-43
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