योगिराज श्रीकृष्ण -लाला लाजपतराय पृ. 96

योगिराज श्रीकृष्ण -लाला लाजपतराय

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इक्कीसवाँ अध्याय
संजय का दौत्य कर्म


इस विस्तृत वक्तृता के उत्तर में युधिष्ठिर ने संजय से कहा, "हे संजय! मुझे यह उपदेश देने से पहले तुझे चाहिए था कि तू धर्म और अधर्म के लक्षण का वर्णन करता, जिसे सुनकर हम यह निश्चय कर सकते कि यह लड़ाई धर्म है या अधर्म। तू जानता है कि धर्म और अधर्म का निर्णय करना कितना कठिन है। प्रायः धर्म अधर्म प्रतीत होता है और अधर्म धर्म। इसी प्रकार आपत्ति के समय में भलाई और बुराई में अर्थ-भेद पड़ जाता है। इसलिए प्रत्येक पुरुष का कर्त्तव्य है कि अपने वर्ण तथा आश्रम के धर्म का पालन करे। तू यह भी जानता है कि आपत्ति काल का धर्म भिन्न होता है। मैं तो दोनों लोकों के राज्य के लिए भी धर्म त्यागने पर राजी नहीं हूँ। मैं समझता हूँ कि मैं जो कुछ करने लगा हूँ वह धर्म के अनुकूल है। फिर भी कृष्ण हम सबमें पवित्र, विद्वान और धर्मशास्त्र में निपुण हैं। कृष्ण से व्यवस्था ले लो कि इस समय क्या धर्म है। जो कुछ वह व्यवस्था देंगे वह मुझे स्वीकार्य होगी।"

इस पर कृष्ण ने संजय से कहना आरम्भ किया-
"हे संजय! तू जानता है कि मैं इन दोनों पक्ष वालों का शुभचिन्तक हूँ। मैं नहीं चाहता कि कौरव और पाण्डव नष्ट हों। मैं इनकी भलाई चाहता हूँ। मैं पूर्व से ही दोनों को सन्धि कर लेने का उपदेश देता आया हूँ। जहाँ तक मैं देखता हूँ युधिष्ठिर अन्तःकरण से सन्धि चाहता है। उसने अभी ऐसी कोई कार्रवाई नहीं की, जिससे इसके विरुद्ध भाव प्रकट हो। परन्तु जब धृतराष्ट्र और उसके पुत्रों के नेत्रों पर लोभ ने पट्टी बाँध रखी है तो मैं नहीं समझता कि यह युद्ध कैसे रुकेगा?"

"धर्म और अधर्म का लक्षण तू भी भली-भाँति जानता है, पुनः आश्चर्य है कि तू युधिष्ठिर जैसे पूर्ण क्षत्रिय को ताना देता है। युधिष्ठिर अपने धर्म पर स्थिर है और उसे शास्त्रानुसार अपने कुल की भलाई का चिन्तन करना है।"

"ज्ञान और कर्म विषयक जो तुमने उपदेश किया है, वह ऐसा विषय है जिसके बारे में ब्राह्मणों की एक सम्मति नहीं रही है। अनेकों की राय है कि परलोक की सिद्धि कर्मों से ही होती है। अन्य लोग कहते हैं कि मुक्ति केवल ज्ञान से मिलती है और इसके लिए कर्मों का नाश करना ही जरूरी है। ब्राह्मण जानते हैं कि यद्यपि हमको खाने के पदार्थों का ज्ञान चाहे हो, पर भूख का नाश तब तक नहीं होता जब तक हम भोजन नहीं कर लेते। ज्ञानकांड की वह शाखा जो कर्मकाण्ड में सहायता देती है, वह अधिक फलदायक है, क्योंकि कर्म का फल प्रत्यक्ष है।"

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

संबंधित लेख

योगिराज श्रीकृष्ण -लाला लाजपतराय
अध्याय अध्याय का नाम पृष्ठ संख्या
ग्रन्थकार लाला लाजपतराय 1
प्रस्तावना 17
भूमिका 22
2. श्रीकृष्णचन्द्र का वंश 50
3. श्रीकृष्ण का जन्म 53
4. बाल्यावस्था : गोकुल ग्राम 57
5. गोकुल से वृन्दावन गमन 61
6. रासलीला का रहस्य 63
7. कृष्ण और बलराम का मथुरा आगमन और कंस-वध 67
8. उग्रसेन का राज्यारोहण और कृष्ण की शिक्षा 69
9. मथुरा पर मगध देश के राजा का जरासंध का आक्रमण 71
10. कृष्ण का विवाह 72
11. श्रीकृष्ण के अन्य युद्ध 73
12. द्रौपदी का स्वयंवर और श्रीकृष्ण की पांडुपुत्रों से भेंट 74
13. कृष्ण की बहन सुभद्रा के साथ अर्जुन का विवाह 75
14. खांडवप्रस्थ के वन में अर्जुन और श्रीकृष्ण 77
15. राजसूय यज्ञ 79
16. कृष्ण, अर्जुन और भीम का जरासंध की राजधानी में आगमन 83
17. राजसूय यज्ञ का आरम्भ : महाभारत की भूमिका 86
18. कृष्ण-पाण्डव मिलन 89
19. महाराज विराट के यहाँ पाण्डवों के सहायकों की सभा 90
20. दुर्योधन और अर्जुन का द्वारिका-गमन 93
21. संजय का दौत्य कर्म 94
22. कृष्णचन्द्र का दौत्य कर्म 98
23. कृष्ण का हस्तिनापुर आगमन 101
24. विदुर और कृष्ण का वार्तालाप 103
25. कृष्ण के दूतत्व का अन्त 109
26. कृष्ण-कर्ण संवाद 111
27. महाभारत का युद्ध 112
28. भीष्म की पराजय 115
29. महाभारत के युद्ध का दूसरा दृश्य : आचार्य द्रोण का सेनापतित्व 118
30. महाभारत के युद्ध का तीसरा दृश्य : कर्ण और अर्जुन का युद्ध 122
31. अन्तिम दृश्य व समाप्ति 123
32. युधिष्ठिर का राज्याभिषेक 126
33. महाराज श्रीकृष्ण के जीवन का अन्तिम भाग 128
34. क्या कृष्ण परमेश्वर के अवतार थे? 130
35. कृष्ण महाराज की शिक्षा 136
36. अंतिम पृष्ठ 151

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