योगिराज श्रीकृष्ण -लाला लाजपतराय
उन्नीसवाँ अध्याय
महाराज विराट के यहाँ पाण्डवों के सहायकों की सभा
"फिर हम जानते हैं कि दुर्योधन कितना दुराचारी और झूठा है। क्या आपने नहीं सुना, यद्यपि युधिष्ठिर ने अपनी प्रतिज्ञा के अनुसार तेरह वर्ष का वनवास पूरा कर दिया, पर दुर्योधन अब यह कहता है, कि तेरहवें वर्ष में हमने उनको पहचान लिया। भीष्म और द्रोण उसे बहुत समझाते हैं पर वह नहीं मानता। अतएव मेरी सम्मति में तो उसे लड़ाई की सूचना दे देनी चाहिए। यदि वह युधिष्ठिर के पैरों पड़े, तो ठीक है, नहीं तो उसे उसके साथियों सहित यमलोक को पहुँचा दिया जाये। आज किसमें सामर्थ्य है जो अर्जुन और भीम जैसे योद्धाओं से युद्ध करे। इसलिए हे सज्जनों! उठो और जब तक दुर्योधन को दण्ड न दे सको, दम न लो।" फिर महाराज द्रुपद कहने लगे, "हे वीर! मैंने तुम्हारी वक्तृता सुनी। मैं तुमसे सहमत हूँ। मेरी भी सम्मति है कि दुर्योधन यों ही सन्धि के लिए राजी नहीं होगा। धृतराष्ट्र अपने पुत्रों के वश में है और वह उनका साथ देगा। भीष्म और द्रोण मन के इतने निर्बल हैं कि वे भी उसका साथ नहीं छोड़ेंगे। यद्यपि बलराम की सम्मति युक्तियुक्त है, पर मैं नहीं मान सकता कि दुर्योधन से चापलूसी की बातें करने से कुछ लाभ होगा। गधे के साथ नरमी करने से कार्य सिद्ध हो सकता है, पर भेड़िया नरमी के बर्ताव का पात्र नहीं। अतएव मेरी सम्मति है कि हम शीघ्र युद्ध की तैयारियाँ आरम्भ कर दें, और अपने इष्ट मित्रों तथा सम्बन्धियों को पत्र लिख दें कि वे अपनी-अपनी सेना सहित तैयार रहें। इस बीच में एक दूत दुर्योधन के पास अवश्य भेजें। मेरे पुरोहित मौजूद हैं, इन्हें दूत बनाकर भेज दिया जाय और वह दुर्योधन से जाकर सब बातें कहे।" महाराज दुपद की सम्मति को सबने पसन्द किया। सभा समाप्त हुई। दूत रवाना किया गया और कृष्ण तथा बलदेव द्वारिकापुरी लौट आये। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
संबंधित लेख
अध्याय | अध्याय का नाम | पृष्ठ संख्या |
वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज