योगिराज श्रीकृष्ण -लाला लाजपतराय पृ. 92

योगिराज श्रीकृष्ण -लाला लाजपतराय

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उन्नीसवाँ अध्याय
महाराज विराट के यहाँ पाण्डवों के सहायकों की सभा


दुर्योधन ने चालाकी से ऐसे पुरुषों को युधिष्ठिर से बाजी खेलने के लिए आगे किया जो इस विद्या में निपुण थे। युधिष्ठिर धर्मानुसार खेलता रहा और हार गया। इसमें उसका कोई अपराध नहीं। उसने अपने वचन को अन्त तक पूरे तौर से निभाया। क्या ऐसी दशा में अब यह उचित है कि वह दुर्योधन से भिक्षा माँगे और निर्बल या अभ्यागत के समान सन्धि का प्रार्थी हो।

"फिर हम जानते हैं कि दुर्योधन कितना दुराचारी और झूठा है। क्या आपने नहीं सुना, यद्यपि युधिष्ठिर ने अपनी प्रतिज्ञा के अनुसार तेरह वर्ष का वनवास पूरा कर दिया, पर दुर्योधन अब यह कहता है, कि तेरहवें वर्ष में हमने उनको पहचान लिया। भीष्म और द्रोण उसे बहुत समझाते हैं पर वह नहीं मानता। अतएव मेरी सम्मति में तो उसे लड़ाई की सूचना दे देनी चाहिए। यदि वह युधिष्ठिर के पैरों पड़े, तो ठीक है, नहीं तो उसे उसके साथियों सहित यमलोक को पहुँचा दिया जाये। आज किसमें सामर्थ्य है जो अर्जुन और भीम जैसे योद्धाओं से युद्ध करे। इसलिए हे सज्जनों! उठो और जब तक दुर्योधन को दण्ड न दे सको, दम न लो।"

फिर महाराज द्रुपद कहने लगे, "हे वीर! मैंने तुम्हारी वक्तृता सुनी। मैं तुमसे सहमत हूँ। मेरी भी सम्मति है कि दुर्योधन यों ही सन्धि के लिए राजी नहीं होगा। धृतराष्ट्र अपने पुत्रों के वश में है और वह उनका साथ देगा। भीष्म और द्रोण मन के इतने निर्बल हैं कि वे भी उसका साथ नहीं छोड़ेंगे। यद्यपि बलराम की सम्मति युक्तियुक्त है, पर मैं नहीं मान सकता कि दुर्योधन से चापलूसी की बातें करने से कुछ लाभ होगा। गधे के साथ नरमी करने से कार्य सिद्ध हो सकता है, पर भेड़िया नरमी के बर्ताव का पात्र नहीं। अतएव मेरी सम्मति है कि हम शीघ्र युद्ध की तैयारियाँ आरम्भ कर दें, और अपने इष्ट मित्रों तथा सम्बन्धियों को पत्र लिख दें कि वे अपनी-अपनी सेना सहित तैयार रहें। इस बीच में एक दूत दुर्योधन के पास अवश्य भेजें। मेरे पुरोहित मौजूद हैं, इन्हें दूत बनाकर भेज दिया जाय और वह दुर्योधन से जाकर सब बातें कहे।"

महाराज दुपद की सम्मति को सबने पसन्द किया। सभा समाप्त हुई। दूत रवाना किया गया और कृष्ण तथा बलदेव द्वारिकापुरी लौट आये।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

संबंधित लेख

योगिराज श्रीकृष्ण -लाला लाजपतराय
अध्याय अध्याय का नाम पृष्ठ संख्या
ग्रन्थकार लाला लाजपतराय 1
प्रस्तावना 17
भूमिका 22
2. श्रीकृष्णचन्द्र का वंश 50
3. श्रीकृष्ण का जन्म 53
4. बाल्यावस्था : गोकुल ग्राम 57
5. गोकुल से वृन्दावन गमन 61
6. रासलीला का रहस्य 63
7. कृष्ण और बलराम का मथुरा आगमन और कंस-वध 67
8. उग्रसेन का राज्यारोहण और कृष्ण की शिक्षा 69
9. मथुरा पर मगध देश के राजा का जरासंध का आक्रमण 71
10. कृष्ण का विवाह 72
11. श्रीकृष्ण के अन्य युद्ध 73
12. द्रौपदी का स्वयंवर और श्रीकृष्ण की पांडुपुत्रों से भेंट 74
13. कृष्ण की बहन सुभद्रा के साथ अर्जुन का विवाह 75
14. खांडवप्रस्थ के वन में अर्जुन और श्रीकृष्ण 77
15. राजसूय यज्ञ 79
16. कृष्ण, अर्जुन और भीम का जरासंध की राजधानी में आगमन 83
17. राजसूय यज्ञ का आरम्भ : महाभारत की भूमिका 86
18. कृष्ण-पाण्डव मिलन 89
19. महाराज विराट के यहाँ पाण्डवों के सहायकों की सभा 90
20. दुर्योधन और अर्जुन का द्वारिका-गमन 93
21. संजय का दौत्य कर्म 94
22. कृष्णचन्द्र का दौत्य कर्म 98
23. कृष्ण का हस्तिनापुर आगमन 101
24. विदुर और कृष्ण का वार्तालाप 103
25. कृष्ण के दूतत्व का अन्त 109
26. कृष्ण-कर्ण संवाद 111
27. महाभारत का युद्ध 112
28. भीष्म की पराजय 115
29. महाभारत के युद्ध का दूसरा दृश्य : आचार्य द्रोण का सेनापतित्व 118
30. महाभारत के युद्ध का तीसरा दृश्य : कर्ण और अर्जुन का युद्ध 122
31. अन्तिम दृश्य व समाप्ति 123
32. युधिष्ठिर का राज्याभिषेक 126
33. महाराज श्रीकृष्ण के जीवन का अन्तिम भाग 128
34. क्या कृष्ण परमेश्वर के अवतार थे? 130
35. कृष्ण महाराज की शिक्षा 136
36. अंतिम पृष्ठ 151

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